वह उसके सहारे लटक जायगी। अपनी यौवन-भरी ठोकर आघात से पैंग ले-ले झूलेगी। आशा के हरे-भरे सावन मे प्रेम की रिमझिम वर्षा होगी; वह झूलेगी, गावेगी, हँसेगी और विहार करेगी। वह एक बार अपने यौवन, जीवन और स्त्रीत्व को पाने के अर्पण करेगी। और, वह उसे अपने पौरुष, दर्प, प्रेम और आत्मार्पण मे लीन करके उसके नारीत्व को सार्थक करेगा।
ये सब बाते अमला ठीक इसी भाँति सोचती हो, सो नही ये तो बड़ी गहरी बाते हैं। अमला तो जैसे जीवन-पथ पर उछलती चलती थी, वह तो इन सब बातों को ऊपर ही ऊपर सोचती थी। जैसे भूखा आदमी भूख तो अनुभव करता है, पर उसके शरीर में जो भीतर उद्वेग पैदा होता हैं, जिसके कारण भूख लगती हैं, उसे नहीं समझता, उसी तरह अमला अपने मन की उस उमग को तो समझती थी, जो उसके यौवन के प्रभात में पति के सस्मरण से तरंगित होती थी, परतु उसके मूल कारण को नही।
[२]
विवाह के बाद अमला जब ससुराल आई, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि जिस वस्तु के संस्मरण से उसके मन में इतनी उमंगे उठती थी, वह कुछ उतनी प्रिय, आकर्षक और उसके उतनी निकट नहीं हैं, जितनी उसे होना चाहिए था। वह क्षणभर ही में अपने को उस अपरिचित घर में कुछ अपरिचित-सी देखने लगी। पति को देखकर वह कुछ सहम सी गई। उसने देखा, वह कुछ उल्लसित नहीं हैं। अमला की चंचलता और उमंग को उद्रेक करने की उनकी कुछ भी चेष्टा नहीं हैं उनकी आँखों में प्यार की वह छलछलाती चमक नहीं। उनमें एक विचार धारा-सी, एक विस्मृति-सी है। जैसे अमला को हिफ़ाज़त से अपने घर में धरकर वह कुछ निश्चित से हो गए हैं।