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तस्वीर

की दो-तीन घूंट गले के नीचे उतारी और चश्मे से घूर-घूर कर मिस्टर वेदवार की ओर देखने लगे।

मिस्टर वेदवार सुन रहे थे और मुस्करा रहे थे। असल बात यह थी कि एक बार उन्होंने मिस्टर भरूँचा की तस्वीर उतारने से इन्कार कर दिया था। इन्कार भी ऐसा वैसा नहीं, यह कह कर इन्कार किया था कि आप तस्वीर उतारने के काबिल ही नहीं हैं। वास्तव में मिस्टर वेदवार कुछ पेशेवर फ़ोटोग्राफ़र तो थे नही। घर के रईस थे। फ़ोटोग्राफी वे सिर्फ शौकिया करते थे। इसकी उन्हें सनक थी। इस सनक के पीछे उन्होंने दो-तीन लाख रुपया फूक किया था। इटली, जर्मनी, जापान, रूस और न जाने कहाँ-कहाँ की खाक छान आये थे। फ़ोटोग्राफी के मामले में वे अब एक प्रमाण माने जाते थे। उन जैसा फ़ोटोग्राफ़र उन दिनों बम्बई शहर में न था। मगर उनकी सनक में एक लहर होती थी। प्रायः वे पुरुषों के फ़ोटो तो यह कहकर खींचने से इन्कार कर दिया करते थे कि पुरुष सोचने-विचारने और काम करने का जानवर है फ़ोटो उतरवाने का नहीं। स्त्रियों की वह लता से उपमा दिया करते थे। उनका कहना था, जैसे लता बिना सहारे खड़ी नहीं हो सकती, जैसे लता मे—कोमलता, मरोड़, मृदुल-माधुर्य और शोभा है, वैसी ही स्त्रियों में है। इसी से वे स्त्रियों का फ़ोटो सीधी खड़ी करके नही लेते थे, खास खास पोज लेते थे। यद्यपि वे बहुत ऊँचे दर्जे के फ़ोटोग्राफर थे, फिर भी स्त्री-पुरुष दोनों ही उनसे फ़ोटो उतरवाने में घबराते थे। रुपया-पैसा तो वे किसी से लेते-देते नहीं थे, पर फ़ोटो उतरवाने वालों को हलाक़ कर डालते थे, मैंने कहा न कि पुरुषों को तो वे देखते ही धता बता देते थे—ख़ास कर उन पुरुषों को जो देखने मे सुडौल और सुन्दर नहीं होते थे। स्त्रियाँ जब उनके पास इस मतलब से