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आवारागर्द

जो आवारागर्द नहीं, उन्हें आवारागर्दी के मजे कैसे समझाए जाएँ। लोग सभ्य हैं, इज्जत-आबरू वाले हैं, उनकी समाज में पद मर्यादा है, बहुत लोग उन्हें जानते हैं, वे यदि आवारागर्दी के चक्कर में पड़े, तो बस, सब खत्म। उनका रुआब उठ जाय, प्रतिष्ठा धूल मे मिल जाय, और देखनेवालों की नज़र से वे गिर जाय।

परन्तु मेरी बात ही निराली है। वह निरालापन आवारागर्दी में ही आ जाता है। बात यह है, न मेरी समाज में कोई इज्जत है न कोई मेरा भुलाकाती दोस्त है, न कहीं मेरा घरबार, ज़मीन-जायदाद है, न नौकरी, न लीडरी। न मैं कवि, न सपादक। मैं महज़ आवारागर्द हूँ जिधर मुँह उठा, चल दिया, जहाँ भूख लगी, खा लिया, जहाँ थक गया, सो गया, जो चीज़ चाही, माँगली, मौका मिला, चुराली, गरज जैसे वने, जीवन की गाड़ी चलाए