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मरम्मत

से कहा रज्जी, मै रिज़र्व बॉक्स के दो टिकट खरीद लाया हूँ, रजनी ने घृणा के भाव को दबा कर हँस दिया।

भोजन के बाद रजनी और दिलीप दोनों ही सिनेमा देखने चल दिये। गृहिणी ने कुछ भी विरोध न किया। सिनेमाघर निकट ही था, अतः पैदल ही रजनी चल दी। रास्ते मे बातचीत नही हुई, मालूम होता है दोनो ही योद्धा अपने-अपने पैतरे सोच रहे थे। रजनी इस उद्धत युवक को ठीक कर देना चाहती थी और दिलीप प्रेम के दलदल में बुरी तरह फँसे थे। रात भर और दिन भर में जो-जो बाते उन्होंने सोची थी वे अब याद नहीं आ रही थी। कैसे कहाँ से शुरू किया जाय, यही प्रश्न सम्मुख था। पत्र पढ़कर भी रजनी बिगड़ी नही, भण्डा फोड़ भी नही किया, उल्टे अकेली सिनेमा देखने आई है। अब फिर सन्देह क्या और सोच क्या, अब तो सारा प्रेम उँडेल देना चाहिये। सुविधा यह थी कि रजनी अङ्गरेगी पढ़ी स्त्री थी। शेक्सपियर, गेटे टेनीसन और वायरन के भावपूर्ण सभी प्रेम सन्दर्भों को समझा सकती थी। पर कठिनाई तो यह थी कि शुरू कैसे और कहाँ से किया जाय।

रजनी ने कनखियों से देखा, दिलीप महाशय का मुँह सूख रहा है, पैर लड़खड़ा रहे हैं। रजनी ने मुस्करा कर कहा "क्या आपको बुखार चढ़ रहा है मिस्टर दिलीप? आपके पैर डगमगा रहे हैं, मुँह सूख रहा है।" दिलीप ने बड़ी कठिनता से हँस कर कहा "नहीं-नही, मै तो बहुत अच्छा हूँ।"

"अच्छी बात है।" कह कर रजनी ने लम्बे-लम्बे डग बढ़ाये। बॉक्स में बैठ कर भी कुछ देर दोनो चुप रहे, खेल शुरू होगया था, शायद खेल कोई प्रसिद्ध न था, इस लिये भीड़-भाड़ बिल्कुल न थी। बॉक्स और रिजर्व की तमाम सीटें खाली पड़ी