पर कुछ रोक-टोक नहीं करती थी। दिलीप के साथ रजनी निस्सङ्कोच बाते करती है, बैठी रहती हैं, ताश खेलती है, चाय पीती है, इन सब बातों को उसका मन सहन कर गया था। वह साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री थी, पर पुत्री ने कालेज की शिक्षा पाई है यह वह जानती थी, डरती भी थी। फिर रजनी सुनती किसकी थी।
दिलीप को राजेन्द्र ने साथ ले जाने की बहुत जिद की थीं, पर वे बहाने बनाकर नहीं गये। जब वे बहाने बना कर असमर्थता दिखा रहे थे तब रजनी उनकी ओर तिरछी दृष्टि करके मुस्कुरा रही थी। उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझ कर दिलीप महाशय आनन्द-विभोर हो रहे थे। प्रगल्भा रजनी अपनी इस विजय पर मन ही मन हँस रही थी।
दिन भर मिस्टर दिलीप ने बेचैनी मे व्यतीत किया। उस दिन उन्होंने अनेक पुस्तकों को उलट-पुलट डाला। मन के उद्वेग को शमन करने और सयत रहने के लिए उन्होंने बड़ा ही प्रयास किया। अन्ततः उन्होने खूब सोच-समझ कर रजनी को एक पत्र लिखा।
रजनी उस दिन उनका दिल जलाने को दो-चार बार उनके कमरे में घूम गई। एकाध बार वचन-वारण भी मारे, मुस्कुराई भी। बिल्ली जिस प्रकार अपने शिकार को मारने से प्रथम खिलाती है, उसी भाँति रजनी ने भी महाशय जी को खिलाना शुरू कर दिया।
दुलारी बड़ी मुँहफट और ढीठ औरत थी। रजनी का सङ्केत पा वह जब-तब चाहे जिस बहाने उनके कमरे में जा एकाध फुलझड़ी छोड़ आती। एक बार उसने कहा—"आज भैया नहीं हैं, इसलिए जीजी ने कहा है आपकी खातिरदारी का भार उन पर है। सो आप सङ्कोच न करे जिस चीज़ की आवश्यकता हो कहिए मै हाज़िर करूँ, जीजी का यही हुक्म है।"