पर विवाद छिड़ जाता, पर सब से प्रधान विषय तो होता था स्त्री-स्वतन्त्रता। इस विषय पर दिलीप महाशय रजनी का विरोध नहीं करते थे, प्रश्रय देते थे और यदि बीच मे राजेन्द्र आ पड़ते तो उनसे जब रजनी का प्रबल वाग्युद्ध छिड़ता तो दिलीप सदैव रजनी ही को बढ़ावा देते रहते। तब क्या राजेन्द्र दकियानूसी विचारों के थे? नहीं, वे तो केवल विवाद के लिए विवाद करते थे। भाई बहिन से प्रगाढ़ प्रेम था। रजनी को राजेन्द्र प्राण से बढ़कर मानते। यह बात दिलीप के मन में घर कर गई। राजेन्द्र एक सच्चे, उदार और पवित्र विचारों के युवक थे, और रजनी एक चरित्रवती-सतेज बालिका थी। शिक्षा से उसका हृदय उत्फुल्ल था, उसके उज्जवल मस्तक पर प्रतिभा का तेज या, वह जैसे भाई के सामने निस्संकोस भाव से आती जाती, हँसती, रूठती, भागती, दौड़ती, बहस करती और बिगड़ती थी, उसी भाँति दिलीप के सामने भी। वह यह बात भूल गई थी कि दिलीप कोई बाहर का आदमी है।
परन्तु दिलीप के रक्त की उष्णता बढ़ रही थी। उसकी आँखों में गुलाबी रङ्ग रहा था। वह अधिक से अधिक रजनी के निकट रहना, उसे देखना और उसकी बाते सुनना चाहता था। उसकी यह अनुराग और आसक्ति रजनी पर तुरन्त ही प्रकट हो गई। वह चौकन्नी हो गई। वह एक योद्धा-प्रकृति की लड़की थी। ज्योंही उसे यह पता चला कि भैया के यह लम्पट मित्र प्रेम की लहर से आ गये हैं, उसने उन्हें जरा ठीक तौर पर पाठ पढ़ाने का निश्चय कर लिया। काँलेज और बोर्डिङ्ग में रहने वाले छात्रों की लोलुप और कामुक प्रकृति का उसे काफ़ी ज्ञान था। वह स्त्री-जाति की रक्षा के प्रश्न पर उसकी स्वाधीनता के प्रश्न पर विचार कर चुकी थी। वह इस निर्णय पर पहुँच चुकी थी कि स्त्रियों को