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आवारागर्द

_ भूल गया था। सोचा था, चलती बार उसे पहनाऊँगा। मैंने चोरी स्वीकार की, पर माल कहाँ है, नहीं बताया। मुझे पीटा गया, और भी यातनाएँ दी गई, परंतु उन यातनाओं में, मार मे कितना सुख था, कितना मज़ा था। वे यातनाएँ उस प्रिय नारी के सुखद स्पर्श, कोमल प्रमालिगन से कहीं अधिक अच्छी लग रही थीं। और, जब जेल की कोठरी मुझे मिली, तो उस एकांत में मैं था, और उस सजनी की जाग्रत् स्मृति। ओह, इसके बाद तो फिर हमारा न कभी विछोह हुआ, न मिलन। मैं प्रतिक्षण एक ही बात सोचा करता हूँ-काश्मीर की उन मनोरम घाटियों में वह मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी, जीवन के अंत तक प्रतीक्षा करेगी।