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आवारागर्द

जीवन भर की कमाई वह दूकान उसे सौप दी थी। वह दूकान पर आता ज़रूर था, परन्तु गद्दी पर बैठा-बैठा सिर्फ माला ही जपा करता था। कार-बार सब कुछ बंसी के हाथ था। हाँ उसका नाम बंसीधर था।

वसी मे एक असाधारण दोष था। उसको दोष कहना चाहिए या नहीं, यह नही कहा जा सकता। परन्तु उसका पिता—जो सब, से अधिक प्यार करता था, और उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाता था—उसके इस दोष की ढोल पीटकर निदा किया करता था, इसलिये हमे भी उसे दोष ही मानना पड़ा। परन्तु आजकल के अशिक्षित नवयुवक उसे दोष नहीं, गुण कहते हैं। हाँ, बंसी जैसे अल्पशिक्षित नवयुवक के लिये यह एक दोष ही समझा जा सकता था, क्यों कि धनी बाप के बेटे के लिए यह एक नई सी बात थी। वह दोष यह था कि वह स्त्रियों से दूर भागता था, और ब्याह के नाम से भड़कता था। मां-बाप व्याह की चर्चा चलाते, तो वह रूठकर खाना-पीना छोड़ देता या रोने लगता। और, दूसरे आदमी अगर इस चर्चा को छेड़ते, तो वह छूटते ही गालियाँ देता और कभी-कभी खीजकर मारने को दौड़ता। फलतः विवाह उसकी एक चिढ़ हो गई थी। विवाह के नाम पर मा-बाप उसकी निदा किया करते और यार-दोस्त चिढ़ाया करते थे।

(२)

दिन बीत रहे थे, और यह बात पुरानी हो रही थी। गर्मी के दिन थे, संध्या का समय। दों स्त्रियों धीरे-धीरे आई, और दूकान पर बैठ गई। दूकान पर बहुत भीड़ थी, बंसी को ग्राहकों से फ़ुर्सत नहीं थी। उन स्त्रियों में एक वृद्धा थी, और दूसरी अज्ञात-यौवना। पंजाब के स्वास्थ्य-वर्द्धक जल-वायु में पलने के कारण उसके चेहरे का रंग सेब की भाँति रंगीन हो रहा था। उस गोरे,