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आल्हखण्ड । १७० करों तरंग यहाँ सों पूरण तव पद सुमिरि भवानीकन्त॥ को यशगावै शिवशंकर को जिनको वेद न पावें अन्त १४० इति श्रीलखनऊनिवासि (सी, आई, ई ) मुंशीनवलकिशोरात्मज वावप्रयागनाः रायणजीकी आज्ञानुसारउन्नामप्रदेशान्तर्गतपैदरीकलांनिवासिमिश्रोनबाप कपाशंकरसूनु पं० ललितामसादकृत मलखानचित्राइविषय वर्णनोनामप्रथमस्तरंगः ॥१॥ सर्वेया॥ दीननके मन मीनन को मेघवा है वरपत हो नितवारी। होय भिखारि चहौ नरनारि किये प्रभुआश सदा सुखकारी ॥ दीन पुकार विभीषणकी सुनि आप हरयो विपदासबभारी॥ कौन सो दीन रहा शरणागत जोन भयो ललिते हितकारी ? सुमिरन॥ धन्य बखानों में नारद को कीन्ह्यो बड़ा जगत उपकार ॥ शिक्षा देते नहिं दुष्टन को तो कस धरत राम अवतार जो रघुनन्दन जग होते ना तो यहचरित करत को भाय॥ 'काह वखानत तुलसी कलियुग कैसे जात जगत यशवाय २ कृष्ण न होते जो द्वापर में कैसे. सूर जात भवपार ॥ कोधों मारत शिशुपाले को कोधों करत कस सों रार ३ कैसे अर्जुन भारत जीतत कैसे करत युधिष्ठिर राज ॥ कौन सो दुनिया में ऐसो भो जैसे भये कृष्ण महराज ? छुटि सुमिरनी गै देवनकै शाका सुनो शूरमन क्यार। माहिल अइहैं उरई वाले जहँ गजराज केर दरबार " अय कथाप्रसंग। गा जब रूपन बचि दारे पर माहिल आयगयो ततकाल॥