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उपर्युक्त विचार से प्रेरित होकर ही मैंने आज तक बकसी हंसराजकृत 'सनेहसागर' और पद्माकरकृत "हिम्मत बहादुर बिरुदावली" खोजकर प्रकाशित कराने का सौभाग्य प्राप्त किया है। यह प्रस्तुत ग्रंथ तीसरा रत्न है जो मेरे परिश्रम से प्रकाशित हो रहा है। चौथा रत्न होगा मतिराम कृत 'सतसई' और पाँचयाँ होगा सेनापति जी का "कवित्त रत्नाकर"


कवि शिरोमणि श्री सूरदास जी की कविता बहुत कम पढ़ी जाती है। कारण यह है कि उनका बड़ा ग्रन्थ 'सूरसागर' साधारण पाठक खरीद नहीं सकते। अतः मैंने उनके सागर को मथकर पाँच अलग रत्न निकाल लिये हैं। उन्हें भी इसी रूप से प्रकाशित करने का उद्योग कर रहा हूँ। देखूं कौन प्रकाशक इस काम में मेरा हाथ बँटाता है।

पुस्तक परिचय

'आलम' कवि कृत 'आलमकेलि' ग्रन्थ का नाम सभी साहित्य सेवियों के मुख से सुना करता था, पर अप्रकाशित होने के कारण दर्शनों को सौभाग्य न हुआ था। यत्र तत्र फुटकर कवित्त देख कर अनुमान होता था कि 'आलम' एक अच्छे कवि होंगे।

इस वर्ष सौभाग्य वश मुझे निज शिष्य पं॰ उमाशंकर मेहता (पन्नानिवासी और काशीप्रवासी) के सरस्वती-भंडार में एक हस्तलिखित प्रति देखने को मिली जो सम्वत् १७५३ की लिखी हुई है और जिसके अन्त में लिखा है—

"इतिश्री आलमकृत कवित्व 'आलमकेलि' समाप्तम्।
संवत् १७५३ समये आसन बदी अष्टमी वार शुक्र॥"