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वक्तब्य

आज काल देश में अनेक ग्रंथमालाएँ निकल रही है। नवीन विषयों पर गधमय ग्रंथों की भरमार हो रही है। कोई २ ग्रंथ. प्रकाशक अनुवादों की ही झड़ी लगाये हैं, पर प्राचीन कवियों की कीर्ति के उद्धार की ओर बहुत कम ही लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है। प्राचीन काव्य का अनुशीलन आज दिन एक व्यर्थ काम समझा जाने लगा है, पर मेरा चित्त तो यह कहता है कि यह भारी भूल है। प्राचीनताप्रिय और सधिदानन्द की उपासिका हिन्दू जाति, अलौकिक आनन्ददायिनी प्राचीन काव्य को भुला रही है, यह शुभ लक्षण नहीं नयीन प्रियता अयश्य अच्छी बात है, उन्नति की घोतक है.स्वासाधक है, लाभकारी है, पर साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्राचीनप्रियता भी हिन्दू जाति का एक विशेष गुण है जिसके खो देने से मुझे तो जाति का कल्याण नहीं देख पड़ता। प्राचीनों की कीर्ति का संरक्षण करना, उसका प्रचार करना, उसका सौन्दर्य बढ़ाया यदि हम से नहीं हो सका तो हमें कोई हक नहीं है कि हम उन प्राचीनों के गुणों के उत्तराधिकारी होने का गर्व करें और उन गुणों के पारिस कहला कर संसार में अपनी धाक जमाते हुए मनुचित लाभ उठा और भूठी शान दिखायें। प्रस्तु,