खेती ४११ ! . में शहतूत की पत्तियों की फसल बहुत अच्छी होती है। एक बार पेड़ 'लगा देने के उपरान्त फिर उसकी अधिक देख भाल करने की ज़रूरत नहीं रहती । वर्ष में दो बार पत्तियों की फसल होती है। फरवरी-मार्च और अक्टूबर नवम्बर में। हर तीसरे साल वृक्ष को कलम कर दिया जाता है जिससे और भी अधिक पत्तियाँ निकलें। ककून इकट्ठा कर लेने पर उन्हें भांप दी जाती है फिर रीलिंग (Reeling ) अर्थात् रेशम के तार को निकालने की क्रिया की जाती है। भारतवर्ष में कीड़े की नस्ल खराब हो गई है। इसके अतिरिक्त भापं देने तपा रीलिंग की क्रिया भी आधुनिक ढंग से नहीं 'को जाती। इस कारण भारतवर्ष का रेशम घटिया होता है। मैसूर तथा काशमीर राज्य विदेशों से अच्छे रेशम के कीड़े मंगवा कर रेशम के धंधे की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। विदेशों में भारतीय रेशम की बहुत कम पूँछ होती है। विदेशी व्यापारी भारत से रेशम मँगाने के वंजाय ककून मँगानां अधिक पसंद करते हैं। क्योंकि यहाँ रीलिंग खराब होता है । यहाँ तक कि हिन्दोस्तान के रेशम बुनने वाले भी चीन, जापान और इटली के रेशम को काम में लाते हैं। इन देशों से प्रति वर्ष बहुत सा रेशम भारतवर्ष में आता है - साम और बंगाल सरकारों ने भी अपने अपने प्रान्तों में इस धंधे की उन्नति करने का प्रयत्न किया है। दो स्कूल इस धंधे की शिक्षा देने के लिए खोले गए हैं। मैसूर राज्य ने जापान से और काशमीर ने फ़ॉस से रेशमें के कीड़े पालने के विशेषज्ञ बुलायें हैं जो उक्त राज्यों में इस धंधे की उन्नति का प्रयत्न कर रहे हैं। काश्मीर में श्रीनगर में एक बहुत बड़ी सिल्क फैक्ट्री हैं। मुर्शिदाबाद, ढाका, बनारस, तथा शान्तीपूर में हाथ के कर्मों पर रेशम तैयार होता है। परन्तु इस धंधे की दशा बहुत गिरी हुई है। नकली रेशम की प्रतिद्वन्द्विता के कारण इसकी दशा और भी खराब हो रही है। मारतवर्ष की नदियों और समुद्र में अच्छी जाति की मछलिया. पाई 'जाती हैं। परन्तु इस धंधे की दशा अच्छी नहीं है। मछली : इसको कारण यह है कि हिन्दुओं में ऊँची जाति के लोग इस धंधे से घृणा करते हैं। केवल नीची जातियों के लोग ही यह धन्धा करते हैं। उनमें न तो शिक्षा ही होती है और न पूंजी ही होती है । इस कारण वे पुराने ढंगः को नहीं छोड़ते। मछलियों को:पकड़ने का आधुनिक वैज्ञानिक ढंग उन्हें : मालूम ही नहीं है। सरकारी मछली विभाग इस ओर प्रयत्नशील है। .. ।
पृष्ठ:आर्थिक भूगोल.djvu/५०२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४९१
खेती