सिंचाई . । से सीची जाती है। भारतवर्ष में सिंचाई के लिए इतने साधन इकडे करने पर भी केवल २० प्रतिशत खेती की भूमि सींची जाती है। शेष ८० प्रतिशत वर्षा के जल परं ही अवलम्बित है। जहाँ नहरों के बन जाने से सिंचाई की सुविधा हो गई है वहाँ "कुछ कठिनाइयां भी अस्थित हो गई हैं. नहरों के पानी से खेत-सींचने पर किसान को जितना पानी उसने लिया है उसके अनुसार श्रावपाशो नहीं देनी होती वरन उसने कितने बीघा जमीन सींची है उसके अनुसार देनी होती है। भिन्न भिन्न फसलों के लिए प्रति बीघा भावपाशी की दर मिन्न है.।. किसान चाहे कम पानी ले अपना ज्यादा ले उसे निर्धारित श्राबाशी देनी होगी। इसका परिणाम यह होता है कि किसान खेत में आवश्यकता से अधिक पानी दे देता है जिससे खेताको हानि पहुँचती है। संयुक्त प्रान्त में तो इसी कारण बहुत सी भूमि पर रेह ( alkali ) जम गया। साधारणतः विश्वास किया जाता है कि नहर के पानी से सींची हुई फसल कुयें के पानी से सींची हुई फसल से कम होती है । किसान को नहर पर निर्भर रहना पड़ता है। कभी कमी.जब उसकी फसल को पानी की अत्यन्त आवश्यकता होती है तब नहर में पानी नहीं पाता और किसान को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। फिर भी नहरों से देश को कल्पनातीत लाम हुआ है और खेती का विस्तार . भारतवर्ष में 'कुये अत्यन्त प्राचीन काल से सिंचाई के काम में आते रहे हैं। निर्धन किसान के लिए कुये ही अधिक उपयुक्त है क्योंकि वह अपने खेतों पर स्वयं कुर्य बना सकता है । उत्तर भारत में जिन स्थानों पर पानी बहुत गहरा नहीं है कचा कुंओं) में तैयार हो जाता है और पक्का कुआँ १५०) में तैयार हो जाता है। यही कारण है कि भारतीय किसान कुओं का बहुत उपयोग करता है। हाँ दक्षिण प्रायद्वीप तथा मध्य भारत में कुत्रों में अधिक व्यय होता है क्योंकि वहाँ का घरातल पथरीला है। केवलं किसान की आर्थिक दृष्टि से ही कुयें उपयुक्त नहीं हैं वरन भौगोलिक दृष्टि से भी भारत के अधिकांश माग में कुयें सिंचाई के लिए उपयुक्त हैं। भारतवर्ष के अधिकांश भाग में मटियार मिट्टी है जिसके नीचे चिकनी मिट्टी की तह मिलती है। जो वर्षा का जल मिट्टी से छन छन कर अन्दर पहुँचता है उसको चिकनी मिट्टी अधिक अन्दर नहीं जाने देती । जब कुयें खोदे जाते हैं तो चिकनी मिट्टी तह के समीप जल श्रोत मिल जाता है। साधारणतः भारतवर्ष में इसी प्रकार के सोते वाले कुयें (Spring wells) हैं। जहाँ चिकनी मिट्टी की
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