पृष्ठ:आर्थिक भूगोल.djvu/२६२

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ग्यारहवां परिच्छेद
व्यापार

ग्यारहवाँ परिच्छेद व्यापार व्यापार का अर्थ यह है कि एक मनुष्य अथवा प्रदेश जिस किसी वस्तु को सरलता पूर्वक तथा अधिक राशि में उत्पन्न करें अपनी उस वस्तु का दूसरे व्यक्ति अथवा प्रदेश की किसी ऐसी वस्तु से परिवर्तन कर लें जिसको वह प्रदेश बहुतायत से उत्पन्न करता है । पदार्थों के इस पारस्परिक विनिमय को ही व्यापार कहते हैं । जब पदार्थों का यह विनिमय किसी देश की सीमा के अन्दर होता है तो उसे देशीय व्यापार कहते हैं और जब यह विनिमय भिन्न भिन्न देशों में होता है तो इसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं। व्यापार से दोनों पक्षों को लाभ होता है। प्रत्येक मनुष्य की कार्य-क्षमता एक सी नहीं होती। इसी प्रकार प्रत्येक देश में प्रकृति की देन तथा उस देश के निवासियों की कार्य-क्षमता एक सी नहीं होती । व्यापार के द्वारा प्रत्येक देश अपनी कमी को पूरा कर लेता है । उदाहरण के लिए यदि ब्रिटेन का जलवायु कपास उत्पन्न करने के उपयुक्त नहीं है तो वह संयुक्तराज्य अमेरिका से कपास मँगाकर तथा उसके बदले में अन्य तैयार माल देकर कपास की अावश्यकता को पूरी कर लेता है। व्यापार के द्वारा मानव समाज का जीवनसंघर्ष सरल हो जाता है और वह कम से कम परिश्रम करके अपनी भौतिक श्रावश्यकताओं को पूरा कर लेता है। प्रारम्भ में जब गमनागमन के साधनों की सुविधा नहीं थी, रेल और जहाज़ का आविष्कार नहीं हुआ था, तब हल्की और बहुमूल्य वस्तुओं का ही व्यापार होता था किन्तु अब तो दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं का ही व्यापार अधिक होता है। यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों को प्रकृति देन की भिन्नता तथा उनके निवासियों की कार्य क्षमता की भिन्नता ही व्यापार का मूल कारण है । जलवायु मिट्टी, खनिज, और वन-सम्पति को भिन्नता, जनसंख्या का घना अथवा बिखरा होना, तपा औद्योगिक उन्नति की भिन्नता के फल स्वरूप प्रत्येक देश में किसी धंधे विशेष के लिए अनुकूल परिस्थिति होती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों में जब भिन्न प्रकार के धंधे स्थापित होते हैं तो वस्तुओं का श्रादान-प्रदान प्रारम्भ होता है । प्रत्येक देश उन