दसवाँ परिच्छेद गैाण उद्योग-धंधे ( Secondary Industries ) यह नो पहले परिच्छेद में ही कहा जा चुका है कि उद्योग-धंधों का स्थानीयकरण निम्नलिखित बातों पर निर्भर है :- (१) शक्ति के साधन, (२) कच्चा माल, (३) कुशल श्रमजीवी, (४) सस्ते दामों पर यातायात की सुविधा, (५) बाजार, (६) जलवायु । यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक धंधे के स्थानीयकरण में इन सभी बातों की आवश्यकता हो । साधारणतः शक्ति के साधन और विशेष कोयले की खानों के समीप उद्योग-धंधे स्थापित होते हैं। कोयले की खानों के प्रदेश मुख्य श्रौद्योगिक प्रदेश हैं। क्योंकि कोयले को दूर ले जाने में व्यय अधिक होता है। कभी कभी धंधे कोयलों की खानों के प्रदेश से दूर स्थापित किये जाते हैं जिससे कि अन्य सुविधायें प्राप्त हो सकें। जिन धंधों का कच्चा माल भारी और कम मूल्यवान होता है वे कच्चा माल उत्पन्न करने वाले प्रदेश में ही स्थापित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए लकड़ी का धंधा। यदि कच्चे माल के प्रदेश में शक्ति की भी सुविधा हो तब तो कहना ही क्या है। उस दशा में धंधा खूब उन्नति करता है । यातायात को सुविधा के बिना तो कोई धन्धा पना हो नहीं सकता । किसी किसी धन्धे में कुशल कारीगरों का बहुत महत्व होता है। ऐसे धन्धे उन्हीं स्थानों पर स्थापित होते हैं जहां कुशल मजदूर मिलते हैं। उदाहरण के लिए जोधपूर का छपाई और रंगाई का धन्धा । बाज़ार का समीप होना अथवा बाजार में माल ले जाने की सुविधा का होना धन्धों की स्थापना के लिए अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु आजकल प्रतिस्पर्दा अधिक बढ़ जाने से तथा आयात कर ( Import duties ) के अधिकाधिक लगाये जाने के कारण धन्धे बाजार के समीप ही स्थापित किये जाने लगे हैं। भारतवर्ष में जो सूती कपड़े के कारखाने, संयुक्तप्रान्त तथा बंगाल इत्यादि में स्थापित किए गये तथा फोर्ड इत्यादि ने अपने कारखाने भारतवर्ष में स्पापित किए वह इसी कारण से।
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दसवां परिच्छेद
गौण उधोग-धंधे (secondary industries)