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आर्थिक भूगोल के सिद्धान्त

अंगूर आइसलैंड (Iceland) में उत्पन्न नहीं किया जा सकता। वनसम्पचि और मछलियाँ भी जलवायु तथा धरातल की बनावट पर ही निर्भर हैं। किसी प्रदेश में कौन सी धातुयें निकलेंगी यह भी उस प्रदेश के धरातल की बनावट पर निर्भर है। अस्तु यह सिद्ध हो गया कि मुख्य धंधे (Primary Industries) अर्थात् खेती-बारी, पशु-पालन, वन-सम्पत्ति खनिज पदार्थ, तथा मछलियाँ प्रकृति पर अवलम्बित हैं। यही नहीं गमनागमन के साधन भी जलवायु और धरातल की बनावट पर निर्भर होते हैं। भौगोलिक परिस्थितियाँ ही मनुष्य की कार्य-क्षमता को निर्धारित करती हैं। शक्ति के साधनों (Power resources) का भी जलवायु तथा धरातल की बनावट से सीधा सम्बन्ध है। कोयले द्वारा उत्पन्न होने वाली शक्ति, बिजली की शक्ति, गैस की शक्ति, पानी की शक्ति, तथा वायु की शक्ति सभी जलवायु तथा धरातल की बनावट पर निर्भर हैं। इन्हीं बातों पर उद्योग-धंधों की उन्नति निर्भर है और उद्योग-धंधों पर ही व्यापार निर्भर है। अतएव यह स्पष्ट हो गया कि भौगोलिक परिस्थिति किसी देश की औद्योगिक उन्नति का मुख्य कारण है। आर्थिक भूगोल के विद्यार्थी को इन सभी समस्याओं का अध्ययन करना आवश्यक है। इन समस्याओं के अतिरिक्त हमें और भी समस्याओं का अध्ययन करना होगा। जैसे उजाड़ देशों को आबाद करने के कारण एक देश से दूसरे देश में मनुष्यों का प्रवास के कारण, तथा भिन्न-भिन्न जातियों के मिलने से जो आर्थिक समस्याएँ उपस्थित होती हैं उनका भी समावेश इस विषय में होना आवश्यक है।

"अतएव आर्थिक भूगोल में उन सभी भौगोलिक परिस्थितियों का विवरण होता है जो खेती, उद्योग-धंधों, व्यापार, तथा जनसंख्या के प्रवास पर प्रभाव डालती हैं।"

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आर्थिक भूगोल देशों के प्राकृतिक तथा राजनैतिक विभाजन, जनसंख्या का वितरण, कृषि तथा अन्य सभी प्रकार के धंधों तथा मनुष्य के रहन-सहन तथा व्यापार इत्यादि विषयों का अध्ययन करता है।

आर्थिक भूगोल के मुख्य दो कार्य हैं। पहला कार्य तो यह कि वह पृथ्वी के आर्थिक साधनों (Economic resources) का आर्थिक भूगोल
के कार्य
ठीक-ठीक विवरण देता है और दूसरा मुख्य कार्य यह है कि वह हमें बतलाता है कि हम उन आर्थिक साधनों को मनुष्य के लाभ और उपयोग के लिए किस प्रकार काम में ला सकते हैं।