आर्थिक भूगोल
प्रथम परिच्छेद
आर्थिक भूगोल के सिद्धान्त
"आर्थिक भूगोल में हम मनुष्य की भौगोलिक परिस्थिति (Natural Environments) का उसके आर्थिक प्रयत्नों पर
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की परिभाषा होने वाले प्रभाव का अध्ययन करते हैं।" इसके अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि मनुष्य के आर्थिक प्रयत्न जहाँ तक वे वस्तुओं के उत्पादन, उनके एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने तथा खरीद-बिक्री से सम्बन्ध रखते हैं वहाँ तक भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। प्रोफेसर जी० जी० चिजौल्म (G. G. Chisolm) ने इस विषय पर लिखते हुए कहा है––
"इस विषय के अन्तर्गत उन सब भौगोलिक परिस्थितियों का विवरण होना चाहिए जो वस्तुओं की उत्पत्ति, उनके चलन, तथा क्रय-विक्रय पर प्रभाव डालती हैं।"
मनुष्य अपनी––भोजन-वन सम्बन्धी तथा अन्य, आवश्यकताओं
को पूरा करने के लिए प्रकृति की सहायता से वस्तुओं
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का क्षेत्र (Scope)को उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए किसान भूमि वर्षा, धूप, और वायु की मदद से खेतों से बहुत तरह की फसलें पैदा करता है, जंगलों में प्रकृति बहुत प्रकार की बहुमूल्य लकड़ी, तथा अन्य वन-सम्पत्ति उत्पन्न करती है जिसके द्वारा मनुष्य तरह तरह की वस्तुयें तैयार करता है। इसी प्रकार प्रकृति ने भूमि के अन्दर बहुत प्रकार की धातुओं को इकट्ठा कर दिया है जिनकी सहायता से मनुष्य बहुत तरह की चीजें बनाता है। सारांश यह है कि खेती-बारी और उद्योग-धंधे प्रकृति पर ही निभर हैं। इसका दूसरे शब्दों में यह अर्थ हुआ कि किसी देश का समृद्धिशाली अथवा निर्धन होना वहाँ की प्रकृति पर निर्भर है। यदि संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ब्रिटेन धनी देश हैं