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आनन्द मठ


थी। उसका मतलब यही था कि इस लड़कीको भैया ले आये हैं। शांति यह न समझी-उसने सोचा, कि निमाईने मेरे कलेजेमें नस्तर चुभानेके लिये यह बात कही है, इसीसे बोल उठी,-"मैंने लड़कीके बापके बारेमें नहीं पूछा था,-मांकी बात पूछी थी।"

उचित दण्ड पाकर निमाई झुझला उठी। बोली,-"भाई! मैं क्या जानूं कि यह लड़की किसकी है भैया इसे न जाने कहांसे उठा लाये हैं मुझे सब हाल पूछने का अवसर भी न मिला। आजकल देख रही हो कि घोर अकाल पड़ा हुआ है कितने लोग अपने बाल बच्चोंको रास्तेपर फेंककर भागे जा रहे हैं। कितने ही आदमी तो हमारे ही घर अपने बच्चोंको बेचनेके लिये आये, पर हमने यही सोचकर किसीको नहीं खरीदा कि पराये बेटी-बेटेका बोझा कौन अपने सिर लेने जाय?" यह कहते कहते निमीकी आँखोंमें फिर आंसू भर आये। उन्हें पोंछकर वह फिर कहने लगी,-"लड़की बड़ी सुन्दर है, बड़ा बढ़िया चांदसा मुखड़ा है। इसीसे मैंने इसे भैयासे मांग लिया।"

इसके बाद शांतिने बड़ी देरतक निमाईके साथ बात की और निमाईके स्वामी जब घर आये तब वहांसे उठकर अपनी कुटियामें चली गयी। वहां पहुंच दरवाजा बन्द कर उसने चल्हेके भीतरसे थोड़ीसी राख निकाली और बाकी राखपर अपने लिये पकाया हुआ भात फेंक दिया। इसके बाद वह बड़ी देरतक खड़ी खड़ी कुछ सोचती रही। फिर आप ही आप बोल उठी,- "इतने दिनसे जो सोच रखा था, उसे आज पूरा करूंगी। जिस आशापर मैंने माजतक वह काम नहीं किया था वह पूरी हो गयी, पर उसे पूरा हुई कहना चाहिये या नष्ट हुई? नष्ट। यह जीवन ही सारा व्यर्थ हुआ। जिस बातका मैं सङ्कल्प कर चुकी हूं, उसे तो पूरा करूंगी ही, जो प्रायश्चित्त एक बार किया वही सौ बार भी सही।"