योग्य हो गयी थी अतएव जीवानन्दने उसके साथ अपना विवाह कर लिया।
विवाहके बाद सब लोग हाथ मल मलकर पछताने लगे। सभी समझ गये कि यह काम अच्छा नहीं हुआ। शान्तिने किसी भी तरह स्त्रियोंकेसे कपड़े नहीं पहने, सिरके बाल नहीं बाँधे। वह घरमें रहकर पड़ोसके बालकोंके साथ खेला करतीथी। जीवानन्दके घरके पास ही जंगल था। शान्ति जंगल में जा मोर, हरिण और दुर्लभ फल और फूलोंको खोजा करती। सास ससुरने पहले तो मना किया पीछे डाँट-डपट की, इसके बाद पीटा और अन्तमें उसे घरमें बन्द करके सांकल चढ़ा दी। इस प्रकारके अत्याचारसे शान्ति ऊब उठी। एक दिन दरवाजा खुला था। वह बिना किसीसे कुछ कहे-सुने चुपचाप घरसे बाहर हो गयी।
जंगलके भीतर जा उसने चुन-चुनकर फूल तोड़े और उन्हींके रसमें कपड़े रंगकर उसने नवजवान संन्यासीका रूप बनाया। उन दिनों सारे बंगालमें दलके दल संन्यासी फिरा करते थे। शान्ति भीख मांगती खाती हुई जगन्नाथजीके रास्तेमें जा पहुँची। थोड़े ही दिन बाद वहां संन्यासियोंका एक दल आ पहुंचा। शान्ति भी उसी दल में मिल गयी।
उस समयके संन्यासी आजकलके संन्यासियोंकी तरह नहीं थे। वे सुशिक्षित, बलवान और अनेक गुणोंसे युक्त होते थे और दल बाँधकर चलते थे। वे एक प्रकारसे पक्के राजविद्रोही थे। सरकारी खजाना लूट खाना उनका काम था। वे हृष्टपुष्ट बालकोंको चुरा ले जाते थे और उन्हें खूब पढ़ा लिखाकर अपने दलमें मिला लेते थे। इससे लोग उन्हें लड़िक धरवा" कहा करते थे
शान्ति बालक संन्यासीके रूपमें ऐसेहो एक दलमें जा मिली। पहले तो वे लोग उसके कोमल शरीरको देखकर उसे अपने दलमें