थोड़ीसी बधार देकर कुछ शृङ्गाररसकी बातें छेड़ दिया करते थे। शान्ति भी तोतेकी तरह उन्हीं बातोंको कहने लगती थी; पर तोतेहीकी तरह वह भी उन बातोंका अर्थ नहीं समझती थी।
दूसरा फल यह हुआ, कि शान्ति जब कुछ बड़ी हुई, तब विद्यार्थीलोग जो कुछ पढ़ते थे, उसे पढ़ने लगती थी। व्याकरण वह भले हो एक अक्षर न जानती हो, तोभी भट्टि, रघुवंश, कुमार, नैषध आदिके श्लोकोंको व्याख्या सहित याद करने लगी यह सब देख सुनकर, शान्ति के पिता भाग्यपर विश्वास कर उसे मुग्धबोध पढ़ाने लगे शान्ति बहुत जल्दी जल्दी पढ़ने लगी। यह देख अध्यापकजीको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्याकरणके साथ साथ साहित्यके भी दो-एक ग्रन्थ पढ़ाये। इसके बाद ही सारा मामला उलट-पुलट गया। उसके पिताका परलोकवास हो गया।
शान्ति निराश्रय हो गयी, पाठशाला टूट गयी। छात्र अपने अपने घर चले गये। पर उनमेंसे कुछ उसे बहुत प्यार करते थे, इसलिये उनमें शान्तिको छोड़कर जाते नहीं बना। उनमें से एक दया करके उसे अपने घर ले गये। यही आगे चलकर सन्तान सम्प्रदायमें जा मिले और जीवानन्द कहलाने लगे। सदा जीवानन्द ही कहा करेंगे।
उस समय जीवानन्दके माता-पिता जीवित थे।
जीवानन्दने उनसे उस कन्याका सारा हाल कह सुनाया। मातापिताने पूछा “इस समय इस परायी लड़कीका बोझा कौन अपने सिरपर लेगा?"
जीवानन्दने कहा,-"मैं इसे ले आया हूं, मैं ही इसका भार उठाऊंगा।
मां-बापने कहा,-"अच्छा, यही सही।"
जीवानन्द उस समयतक कुंवारे थे। शान्ति भी व्याह करने