सारे पशु-पक्षी चुप हैं। न जाने कितने, लाखों-करोड़ों पशु पक्षी, कीट पतङ्ग इस जङ्गल में बसेरा करते हैं; पर इस समय किसी की बोली नहीं सुनाई पड़ती। उस अन्धकार का अनुमान भले ही हो जाय; पर शब्दमयी पृथ्वी की इस निस्तब्धता का तो अनुमान ही नहीं हो सकता। उसी अनन्त शून्य अरण्य में, उसी सूची भेद्य अन्धकारमयी रात्रि में, उस प्रगाढ़ निस्तब्धता को भङ्ग करते हुए न जाने किसने कहा,—"मेरी मनोकामना पूरी न होगी?"
इस आवाज के बाद ही वह अरण्य मानों फिर निस्तब्धता के समुद्र में डूब गया। अब भला कौन कह सकता है कि इस जङ्गल में अभी मनुष्य की बोली सुनाई पड़ी थी? थोड़ी ही देर बाद फिर वैसा ही शब्द सुनाई पड़ा—फिर भी किसी मनुष्य कण्ठ ने उस निस्तब्धता के समुद्र को मथते हुए कहा,—"क्या मेरी मनोकामना पूरी न होगी?"
इस प्रकार तीन बार उस निस्तब्ध समुद्र में खलबली पैदा हुई। तब किसी ने मानों पूछा,—"अच्छा, बोलो, दाँवपर क्या रखते हो?"
प्रत्युत्तर मिला,—"मैं अपना जीवन-सर्वस्व दाँवपर लगाता हूँ।"
प्रतिशब्द हुआ,—"जीवन तुच्छ पदार्थ है, उसे तो सभी लोग त्याग सकते हैं।"
"तब और मेरे पास है ही क्या, जो दे सकूँ?"
उत्तर मिला,—"भक्ति!"