-क्या इस हृदयमें साहस नहीं रह गया? भाइयो! बोलो-हरे मुरारे मधुकैटभारे! जिन्होंने मधुकैटभका नाश किया है, जिन्होंने हिरण्यकशिपु, कंस, दन्तवक, शिशुपाल आदि दुर्जय असुरोंको मार गिराया है, जिनके चक्र के घघर निर्घोषको सुन कर मृत्युको जीतनेवाले शम्भु भी डर जाते हैं, जो अजेय हैं, रणमें जय देनेवाले हैं, हमलोग उन्हींके उपासक हैं, उन्हींके बलसे हमारी भुजाओंमें अनन्त बल वर्तमान है। वे इच्छामय हैं, उनके इच्छा करते हो हमलोग लड़ाई जीत लेंगे। चलो, हम लोग अभी उस यवनपुरीको तहस नहस कर डालें और धूलमें मिला दें। उस शूकरनिवासको आगसे जलाकर पानीमें बहा दें। वह पंछीका घोंसला उजाड़कर उसके सब खर-पात हवामें उड़ा दें। बोलो, हरे मुरारे मधुकैटभारे!"
उस समय उस जंगलमें अति भीषण नादसे सहस्रों कण्ठ एक साथ ही कह उठे,–“हरे मुरारे मधुकैटमारे!” साथ ही हजारों तलवारें एक ही साथ झनझना उठीं। सहस्रों भालोंकी नों एक ही साथ चमचमा उठीं। सहस्रों भुजाओंके परिचालनसे वज्रका सा शब्द होने लगा। हजारों युद्धके नगाड़े बज उठे। जंगलके पशु डर के मारे महा कोलाहल करते हुए भाग चले। पक्षी जोर जोरसे चीत्कार करते हुए आसमानमें उड़ गये। उसी समय सैकड़ों मारू बाजे बजाते और “हरे मुरारे मधुकैटभारे” की आवाज लगाते हुए सन्तानगण कतार बांधकर जंगलसे बाहर होने लगे। धीर गम्भीर पदविक्षेप करते और ऊचे स्वरसे हरिनामका उच्चारण लेते हुए वे लोग उसी अँधेरी रातमें नगरकी ओर बढ़े। वस्त्रों का मर्मर शब्द, अस्त्रोंकी झनकार, सहस्रों कण्ठोंका अस्फुट निनाद और बीच-बीचमें “हरे मुरारे” का तुमुल रव होता रहा। धीर, गम्भीर, सरोष और सतेज भावसे चलती हुई वह सन्तानसेना क्रमसे नगरमें आ पहुंची और नगरवासियोंके मनमें भास उत्पन्न करने लगी।