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सत्रहवां परिच्छेद


करना होता है, वही क्या सौ अपराधोंके लिये भी करना होता है?"

जीवानन्दने आश्चर्य और उदासोके साथ कहा, “यह सब बातें किस लिये पूछ रही हो?”

शान्ति–“मैं एक भिक्षा मांगती हूं। मुझसे मिले बिना प्रायश्चित्त न करना।"

यह सुन, जीवानन्दने हँसकर कहा,-"इस बारेमें तुम निश्चिन्त रहो। मैं तुमसे मिले बिना नहीं मरूंगा। मरनेकी वैसी कुछ जल्दी भी नहीं पड़ी है। अब मैं यहां न ठहरूंगा। इस बार तुम्हें जीभर देखने नहीं पाया; पर किसी दिन यह साध अवश्य पूरी करूंगा। एक दिन हमारी मनोकामना अवश्य ही पूरी होगी। अब मैं चला, पर मेरा एक अनुरोध है उसे मान लेना। यह फटे पुराने वस्त्र छोड़ दो और मेरे पैतृक घरमें ही जाकर रहो।"

शान्तिने पूछा, “इस समय तुम यहांसे कहां जाओगे?"

जीवानन्द-“अभी तो मठमें जाकर ब्रह्मचारीजीका पता लगाना है। उन्हें जिस हालतमें शहरकी ओर जाते देखा है, उससे मुझे बड़ी चिन्ता हो गयी है। अगर वे मन्दिर में न मिले तो उन्हें ढूंढ़नेके लिये शहर जाऊंगा।"




सत्रहवां परिच्छेद

भवानन्द, मठके भीतर बैठे हरि-गुण-गान कर रहे थे। इसीसमय ज्ञानानन्द नामक एक तेजस्वी सन्तान उदास मुंह, उनके पास आ खड़े हुए। भवानन्दने कहा,-"गुसाई जी! ऐसा उदास चेहरा क्यों बनाये हुए हो?"