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आनन्द मठ

तो भी मैं निश्चय नहीं कर सकता कि कौन पलड़ा भारी है। देश तो शांत है, देश को लेकर मुझे क्या करना है? देश की एक कट्ठा भूमि पा जाऊ तो तुम्हें लेकर मैं वहीं स्वर्ग को रचना कर सकता हूं। फिर मुझे देश से क्या काम है? देश के लोग दुःखी हैं—रहें। पर जिसने तुम-सी सती पाकर भी त्याग कर दी है, उससे बढ़कर दुखिया देश में और कौन होगा? जो तुम्हारे इस कोमल शरीरपर सौ सौ पैबंद लगे हुए कपड़े देखता है, उससे बढ़कर दरिद्र इस देश में दूसरा कौन होगा? तुम मेरी सहधर्मिणी हो। जब मैंने तुम-सी सहायक को छोड़ दिया,तो फिर मेरे लिये सनातन धर्म क्या चीज है? मैं किस धर्म के लिये बंदूक कंधे पर लिये देश विदेश, जङ्गल-जङ्गल भटकता जीव हत्या कर अपने ऊपर पाप का बोझ लाद रहा हूं? पृथ्वी पर संतानों का राज्य होगा या नहीं, नहीं, कहा जा सकता; पर तुम तो मेरे हाथ में ही हो। तुम पृथ्वी को अपेक्षा कहीं बड़ी हो—तुम मेरे लिये साक्षात् स्वर्ग हो। चलो घर चले। अब मैं लौटकर वहां न जाऊंगा।"

शान्ति के मुंह से कुछ देरतक बात न निकलो। फिर बोली,—"छिः! तुम वीर पुरुष होकर ऐसी बातें करते हो? मुझे तो इस संसार में यही सबसे बढ़कर सुखकी बात मालूम होती है कि मैं वीर-पत्नी हूं! तुम एक अधम नारी के लिये अपना वीर-धर्म त्याग करते हो? तुम मुझे प्यार करो—मुझे वह सुख नहीं चाहिये; पर तुम अपना वीर-धर्म कदापि न छोड़ो। हां, एक बात और है, इस व्रतभङ्गका प्रायश्चित्त क्या है?"

जीवानन्द ने कहा,—"प्रायश्चित्त है दान, उपवास ओर १२ काहन[] कौड़ी।

यह सुन, शान्ति मुस्कुराते हुए बोली,—"प्रायश्चित्त क्या है, सो मैं जानती हूं; पर एक अपराध करने पर जो प्रायश्चित्त


  1. १ काहनमें १ रुपयेकी कौड़ियाँ होती हैं।