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बारहवां परिच्छेद


भीनी भीनी सुगन्धमें सराबोर थी, बीच बीच में कहीं कहीं नदीके जलमें सूर्य की किरणें झलमला रही थीं। कहीं ताड़के पत्तोंका मृदु-मधुर मर्मर शब्द हो रहा था। दूरपर नीले रङ्गकी पर्वत श्रेणी दिखाई दे रही थी। इन सब सौन्दर्यका आनन्द लेते हुए दोनों बड़ी देरतक चुपचाप बेठे रहे। इसके बाद कल्याणीने पूछा-"क्या सोच रहे हो?"

महेन्द्र-“यही, कि क्या करूं। स्वप्न केवल निर्भाषिका मात्र है, यह आप ही मनमें उत्पन्न होता और आप ही लय हो जाता है। वह और कुछ नहीं जीवनका जलविम्ब मात्र है। चलो, घर चलें।"

कल्याणी-“देवता तुम्हें जहां जानेको कहें वहीं जाओ।" यह कहकर कल्याणीने कन्याको स्वामीकी गोदमें दे दिया।

महेन्द्रने कन्याको गोदमें लेकर पूछा-"और तुम तुम कहां जाओगी?"

कल्याणीने दोनों हाथोंसे आंखें मूद, सिरथामकर कहा, "मुझे भी देवता जहां जानेको कहेंगे, वहीं चली जाऊंगी।"

महेन्द्र चौंककर बोले-“वह जगह कहां है? वहां किस तरह?"

कल्याणीने स्वामीको जहरकी डिबिया दिखला दी।

महेन्द्रने विस्मित होकर पूछा--"क्या तुम विष खाओगी?"

"खानेका विचार कर चुकी थी, परन्तु" इतना कहकर कल्याणी कुछ सोचने लगी। महेंद्र उसके मुंहकी ओर ताकते रह गये। उन्हें एक एक पल एक एक वर्ष मालूम पड़ने लगा। कल्याणीने पूरी बात नहीं कही यह देख महेंद्रने पूछा--"तुम क्या कह रही थी कहो न?"

कल्याणी--"जानेका इरादा कर चुकी थी पर तुम्हें और सुकुमारीको छोड़कर बैकुण्ठमें भी जानेकी मेरी इच्छा नहीं होती। मुझसे मरा न जायगा।"