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ग्यारहवां परिच्छेद


शरण्ये त्र्यम्बिके गौरि! नारायणि! नमोऽस्तु ते।"

दोनों व्यक्तियोंने भक्ति भावसे प्रणाम किया। तब महेन्द्रने गद्गद कंठसे पूछा,-"मांकी यह मूर्ति कब दिखाई देगी?"

ब्रह्मचारीने कहा,-"जिस दिन मांकी सभी सन्तान उन्हें मां कहकर पुकारने लगेंगी; उसी दिन वे प्रसन्न होंगी।"

सहसा महेन्द्र पूछ बैठे,-"मेरी स्त्री कन्या कहां हैं?"

ब्रह्मचारी-चलो दिखलादूं।"

महेन्द्र-"उन्हें एक बार देखकर ही मैं बिदा कर दूंगा।"

ब्रह्मचारी-“क्यों?"

महेन्द्र-“मैं यह महामन्त्र ग्रहण करूगा।"

ब्रह्म०-"उन्हें कहां भेजोगे?"

महेन्द्र कुछ देर सोचनेके बाद बोले-"मेरे घरपर कोई नहीं है और कोई दूसरा स्थान भी नहीं है। इस महामारीके जमानेमें उन्हें रखनेको और स्थान ही कहां पाऊंगा।"

ब्रह्म-“जिस राहसे तुम यहां आये हो, उसी राहसे मन्दिरके बाहर जाओ। मन्दिरके दरवाजेपर ही तुम्हारी स्त्री और कन्या बैठी हैं। कल्याणीने अबतक भोजन नहीं किया है। जहां वेदोनों मां बेटी बैठी हैं, वहीं खाने पीनेको चीजें भी रखी हैं। उन्हें खिला पिलाकर, तुम्हारी जो इच्छा हो करना। हममें से किसीको न देख सकोगे। तुम्हारा मन यदि ऐसा ही रहा, तो उपयुक्त समय मानेपर मैं आ मिलूंगा।"

यह कहकर, ब्रह्मचारी न जाने किस पथसे जाकर अन्तर्धान हो गये। महेन्द्रने बतलाये हुए रास्तेसे बाहर आते हो देखा कि कल्याणी कन्याको गोदमें लिये नाट्यशालामें बैठी है।

इधर सत्यानंद एक दूसरी सुरंगसे नीचे उतरकर तहखानेके कमरेमें चले आये। वहाँ जीवानन्द और भवानन्द रुपये गिन गिनकर उनकी अलग अलग, गड्डीयां लगा रहे थे। उस घरमें ढेरके ढेर सोना, चांदी, तांबा, हीरा, मूंगा और मोती आदि