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आनन्द मठ


इसीलिये उनकी सिपाहियोंसे मुठभेड़ हो गयी थी। भवानन्द तालपहाड़से जिस चट्टीकी ओर चले, वह भी दक्षिणसे उत्तरकी ओर थी। इसलिये कुछ ही दूर जाकर उनका सिपाहियोंसे मुकाबिला हो गया। उन्होंने भी महेन्द्रकी ही तरह सिपाहियोंको रास्ता दे दिया। एक तो सिपाहियोंको सहज ही इस बातका अन्देशा था, कि डाकू खजानेको लूटनेकी अवश्य ही चेष्टा करेंगे, दूसरे, रास्तेमें उन्होंने एक डाकूको गिरफ्तार भी कर लिया था, इसीसे भवानन्दको फिर इस रातके समय किनारा काटकर जाते देख, उनको पूरा विश्वास हो गया, कि यह भी कोई डाक ही है। फिर क्या था! सिपाहियोंने उन्हें झट गिरफ्तार कर लिया।

भवानन्दने धीरेसे मुस्कराकर कहा,-"क्यों भाई! मुझे क्यों पकड़ते हो?"

एक लिपाहीने कहा,-"तू साला डाकू है।"

भवा०-"देखते नहीं हो, मैं गेरुआधारी ब्रह्मचारी हूं। क्या डाकू ऐसे ही होते हैं?"

सिपाही-“बहुतेरे ससुरे साधु-संन्यासी चोरी डकैती,करते हैं।" यह कह, सिपाहीने भवानन्दको, गरदनमें हाथ डाल, धक्का देकर अपनी ओर खींचा। मवानन्दकी आंखें क्रोध के मारे लाल हो गयीं पर वे और कुछ न कहकर अत्यन्त विनीत भावसे बोले,-"प्रभो! आज्ञा दीजिये, मुझे क्या करना होगा?"

भवानन्दको विनयसे सन्तुष्ट हो सिपाहीने कहा,-"ले चल साला! यह गठरी सिरपर उठा ले।" यह कह, उसने भवानन्द के सिरपर एक गठरो रख दी। यह देख, एक दूसरे सिपाहीने कहा,-"नहीं यार! ऐसा न करो। साला भाग जायगा। पहलेको जहां बांध रखा है, इसको भी वहीं बांध दो। यह सुन, भवानन्दको बड़ा कौतूहल हुआ, कि देखें इन सबने किसे कहां बांध रखा है। यही सोचकर भवानन्दने सिरकी गठरी नीचे फेंक