रात बहुत बीत गयी है। चन्द्रदेव मध्य आकाशमें आ गये हैं। आज पूर्णमासी नहीं है, इसले प्रकाश तेज नहीं है अत्यन्त विस्तीर्ण मैदानके ऊपर उस अन्धकारकी छायासे युक्त धुधली रोशनी पड़ रही है। उस रोशनीमें मैदानका आरपार नहीं दिखाई देता। मैदानमें क्या है, कौन है, नहीं मालूम पड़ता। सारामैदान अनन्त जन-शून्य और डरावना मालूम पड़ रहा रास्तेके किनारे एक छोटीसी पहाड़ी है, जिसपर आम आदिके बहुतसे पेड़ लगे हैं। पेड़ोंकी पत्तियां चांदनीमें चमकती हुई हिल रही हैं, उनकी छाया काले पत्थरपर पड़कर और भी काली हो गयी है और जगातार कांपती मालूम पड़ती है। ब्रह्मचारी उसी पहाड़ीके शिखरपर चढ़कर चुपचाप खड़े हो, न जाने क्या सुनने लगे-किस चीजकी आहट लेने लगे, नहीं कहा जा सकता। उस अनन्त प्रान्तमें कहीं कोई शब्द नहीं सुनाई पड़ता था केवल वृक्षोंके पत्तोंकी खड़खड़ाहट सुनाई पड़ती थी। पहाड़ीके नीचे ही घना जंगल था।
ऊपर पहाड़ी; नीचे राजपथ और बीचमें जंगल था। वहींपर न जाने कैसा शब्द हुआ, सो तो हमें नहीं मालूम; पर हां, ब्रह्मचारी उसीकी सीधपर चल पड़े। घने जंगलमें प्रवेश कर उन्होंने देखा, कि उस जंगलके पेड़ोंके नीचे अंधेरेमें ही बहुतसे आदमी कतार बांधे बैठे हुए हैं। वे सभी लम्बे तगड़े, काले काले और हथियार बन्द थे। पत्तोंके बीचसे छनकर आनेवाली रोशनी उनके पैने हथियारोंपर पड़ रही थी, जिससे वे खूब चमक रहे थे। इसी प्रकार दो सौ आदमी वहां जमा थे; पर किसीके मुंहसे बोली नहीं निकलती थी। धीरे धीरे उनके पास पहुंचकर