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पांचवां परिच्छेद


पहले तो कल्याणी कुछ समझ न सकी पर मन कुछ स्थिर हो जानेपर उसने उन महात्माको प्रणाम किया। महात्माने शुभ आशीर्वाद दिया फिर दूसरे कमरेसे एक सुगन्धित मिट्टी का वर्तन लाया और आगपर दूध गरम किया। दूध गरम होनेपर उन्होंने कल्याणोको देकर कहा-“बेटी! थोड़ा तुम पीओ और थोड़ा लड़कीको भी पिलाओ, इसके बाद बाते करूंगा।” यह सुन, कल्याणी प्रसन्न-मन कन्याको दूध पिलाने लगी। इसी समय वे महापुरुष यह कहकर मन्दिरसे बाहर चले गये, "कि मैं जबतक नहीं आऊ, किसी प्रकारकी चिन्ता न करना।” कुछ देर बाद बाहरसे लौट आनेपर उन्होंने देखा कि कल्याणी कन्या को तो दूध पिला चुकी है, पर अभी स्वयं नहीं पिया है। दूध ज्योंका त्यों रखा हुआ है, यह देख उस महापुरुषने कहा-“बेटी! तुमने क्यों नहीं पिया? लो, मैं बाहर जाता हूं, जबतक तुम न पी लोगी, मैं न लौटूंगा।"

यह कहकर वे महापुरुष चले हो जा रहे थे कि कल्याणीने उन्हें दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

वनवासीने पूछा-"क्या कुछ कहोगी?" कल्याणीने कहा “मुझे दूध पीनेके लिये अनुरोध न करें-एक आपत्ति है। मैं नहीं पी सकती।" यह सुन वनवासीने अत्यन्त करुण स्वरमें कहा-“कौनसी आपत्ति है, मुझसे कहो। मैं जंगलमें रहनेवाला ब्रह्मचारी हूं। तुम मेरो लड़कीके बराबर हो। कहो, मुझसे भी कहने लायक नहीं हो, ऐसी कौन सी बात है। जब मैं तुम्हें जंगलसे बेहोशीकी हालतमें उठा लाया था, उस समय तुम बहुत 'भूखी प्यासी मालूम पड़ती थी। विना कुछ खाये पिये प्राण कैसे बचेंगे।"

कल्याणीने रोते-रोते कहा-"आप देवता हैं, इसीसे आपसे कहती हूं। मेरे स्वामी अभीतक भूखे होंगे। बिना उन्हें देखे