"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”
कल्याणीने आंखें खोली। उसने क्षीण प्रकाशमें देखा, कि वही शुभ्र-शरीर, शुभ्र-केश, शुभ्र-वलन ऋषि मूत्ति उसके सामने खड़ी है! अन्यमनस्का कल्याणीने श्रद्धा भकि युक्त उन्हें प्रणाम करना चाहा; पर प्रणाम न कर सकी। सिर झुकाते ही बेहोश होकर गिर पड़ी।
उस वनके एक विस्तृत भागमें पत्थरोंके ढोकोंसे घिरा हुआ एक बड़ा मठ था। उसे यदि कोई पुरातत्त्ववेत्ता देख पाये, तो यही कहेगा कि यह पहले बौद्धोंका विहार' रहा होगा, पीछे हिन्दुओंका मठ हो गया। अट्टालिका दुम जिली है-बीच में बहुतसे देवमन्दिर हैं, जिनके सामने नाट्यशाला बनी हुई है। मठके चारों तरफ दीवार खींची हुई है और बाहरसे जंगली वृक्षोंकी श्रेणी द्वारा ऐसा छिपा हुआ है कि पास जानेपर भी यह नहीं मालूम होता कि यहां पका मकान है। अट्टालिकाए जगह जगहसे टूटी फूटी थीं परन्तु दिनको देखनेसे मालूम होता था, कि उन सबकी हालमें ही मरम्मत हो गयी है। इससे प्रगट होता था कि इस गम्भीर और अभेद्य अरण्यमें मनुष्य बास करते हैं।
मठके एक कमरेमें बड़ी भारी धूनी जल रही थी। होशमें आकर कल्याणीने देखा कि वही शुभ्र-शरीर, शुभ्र-वसन महापुरुष उसके सामने खड़े हैं। कल्याणी विस्मयसे उनकी ओर देखने लगी। पर बहुत सोचने पर भी उसे कुछ स्मरण नहीं हो सका। यह देख उस महापुरुषने कहा-“बेटी! शंका न करो, यह देवताका स्थान है। थोड़ा दूध है, इसे पीलो, तब तुम्हें सब कथा सुनाऊंगा।