यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८३
सातवां परिच्छेद

शान्ति-रक्षा करनेके लिये महेन्द्र काफी हैं। स्वयं महाप्रभु सत्यानन्द मौजूद हैं। तुमने सन्तान-धर्मके लिहाजसे अपने पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये देह-त्याग कर दिया था। अब फिरसे पाये हुए इस शरीरपर सन्तानोंका कोई दावा नहीं है। सन्तानोंके लेखे तो हम मर चुके। अब हमें देखनेपर सन्तातगण कह सकते हैं कि तुम युद्धके समय प्रायश्चित्त करनेके डरसे छिप गये थे और अब जीत होनेको खबर पाकर राज्यमें हिस्सा बांटने आये हो।"

जीवा-“यह क्या शान्ति? लोग बुराई करेंगे, इसी डर से क्या मैं अपना काम छोड़ दूंगा? मेरा काम माताकी सेवा करना है। कोई कुछ भी क्यों न कहे, पर मैं मातृसेवा न छोडूंगा।"

शान्ति-"अब तुम ऐसा करनेके अधिकारी नहीं रहे क्योंकि तुमने मातृसेवाके लिये अपनी जान दे दी थी। यदि फिर माताकी सेवा करने पाये, तो प्रायश्चित्त ही कौन-सा हुआ। मातृसेवासे वञ्चित होना ही इस प्रायश्चित्तका मुख्य अङ्ग है। नहीं तो केवल जान दे डालना ही क्या कोई बड़ा भारी काम है?"

जीवा०-“शान्ति! असली तत्वतक तुम्हीं पहुंचती हो। मैं अपने प्रायश्चित्तको अधूरा न रखूंगा। मेरा सुख सन्तानधर्म का पालन करना ही है, उसी सुखसे मैं अपनेको वञ्चित करूंगा। पर कहां जाऊ! मातृसेवा त्यागकर घर जा सुख भोगना तो अपनेसे नहीं बन पड़ेगा।"

शान्ति-“मैं भी तो घर जानेकी बात नहीं कह रही हूँ। हम लोग अब गृहस्थ नहीं रहे। दोनों जने इसी तरह संन्यासी रहेंगे। सदा ब्रह्मचर्यका पालन करते रहेंगे। चलो हमलोग इधर-उधर तीर्थों में घूम-फिरकर दिन बितायें।”

जीवा०-“उसके बाद?"