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आनन्द मठ


रोशनीसे चेहरा देख कर आगे बढ़ जाती थी। वह जहां कहीं किली लाशको घोड़े के नीचे पड़ी पाती, वहीं मशालको नीचे रखकर घोड़ेकी लाशको दोनों हाथोंसे हटाती और उस लाशको देखने लगती। देखनेपर जब उसे यह मालूम हो जाता कि यह लाश तो उसकी नहीं है, जिसे मैं ढूंढ रही हूं, तब वह वहाँसे चल देती थी। इस तरह घूमती-फिरती हुई वह सारा मैदान ढूंढ़ आयी पर जिसे वह खोजती थी, उसे उसने कहीं नहीं पाया। तब लाचार हो, मशाल फेक, उस मुर्दोके ढेरसे भरे और खूनसे रंगे हुए युद्ध क्षेत्रमें लोट लोटकर रोने लगी। वह थी शांति। वह जीवानन्दकी लाश ढूढ़ रही थी।

शान्ति जमीनमें पड़ी लोट लोटकर रोने लगी। इसी समय एक अत्यन्त मधुर और करुणा भरी ध्वनि उसके कानमें पड़ी। उसने सुना, मानों कोई कह रहा है -"बेटी, रोओ मत।" शान्तिने आँखें उठाकर चन्द्रमाके प्रकाशमें देखा कि सामने ही एक अपूर्व दर्शनीय जटाजूटधारी महापुरुष खड़े हैं। उनका डीलडोल बड़ा लम्बा-चौड़ा है।

शान्ति उठकर खड़ी हो गयी। आनेवाले महात्माने कहा “देखो बेटी! रोओ मत। तुम मेरे साथ साथ आओ। मैं जीवानन्दकी लाश ढूढ़ लाता हूं।"

यह कह, वे महापुरुष शान्तिको रणक्षेत्रके बीचोंबीच ले गये। वहीं एक-पर-एक असंख्य लाशोंके ढरे लगे हुए थे। शान्ति उन्हें हटा नहीं सकती थी। उन्हीं महा बलवान पुरुषने एक एक करके उन लाशोंको हटाते हुए एक लाश बाहर निकाली। शान्ति झट पहचान गयी कि यह लाश जीवानन्दकी है। उनके सारे शरीरमें घाव लगे हुए थे, जिनसे सर्वाङ्ग लहू में लथपथ हो रहा था। शान्ति साधारण स्त्रियोंकी तरह फूट-फटकर रोने लगी।

महात्माने फिर कहा-" रोओ मत! जीवानन्द मरा नहीं