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आनन्द मठ


हिन्दू, मुसलमान, मदरासो और गोरे सिपाही कन्धेपर बन्दूक रखे, जूते मचमचाते हुए कूच करने लगे। तोप खींचनेवाली गाड़ियाँ घरघरातो हुई जाने लगीं।

इधर महेन्द्र सन्तान-सेना लिये हुए धीरे-धीरे मेले की तरफ बढ़े आ रहे थे। उसी दिन तीसरे पहर उन्होंने दिन ढलते देख, एक जगह डेरा डालनेका विचार किया। उस समय उन्होंने डेरा डालना ही उचित समझा। वैष्णवींके पास डेरे-तम्बू तो होते नहीं। वे पेड़ोंके नीचे टाट या कथरी बिछाकर सो रहते हैं। कभी थोड़ासा हरिचरणामृत पीकर ही रात बिता देते हैं। यदि थोड़ी-बहुत क्षुधा बाकी रहती है तो वह स्वप्नमें वैष्णवीके अधरामृत पान करनेसे ही मिट जाती है? पास ही एक जगह ठहरने योग्य स्थान था। एक बड़ा भारी बागीचा था, जिसमें आम, कटहल, बबूल और इमलीके बहुतसे पेड़ लगे हुए थे। महेन्द्रने आज्ञा दी-“यहीं डेरा डालो।” उसके पास ही एक टीला था, जो बड़ा ऊबड़-खाबड़ था। महेन्द्रने एक बार सोचा कि उसी टीलेपर डेरा डाला जाय। इसीसे उन्होंने उस जगहको देख आनेका विचार किया।

यही विचारकर वे घोड़ेपर सवार हो, धीरे-धीरे उस टीले पर चढ़ने लगे। वे कुछ ही दूर गये होंगे कि एक युवा वैष्णव सेनाके बीचमें आकर बोला-"चलो, चलो, टीलेपर चढ़ चलो।" आसपासके लोग अचरज में आकर पूछ बैठे-"क्यों, क्यों, मामला क्या है?"

वह योद्धा एक मिट्टोके ढेरपर खड़ा होकर बोला-"चलो, इस चांदनी रातमें उस पर्वत-शिखरपर चढ़कर नूतन वसन्तके नूतन पुष्पोंकी सुगन्धका आनन्द देते हुए आज हम लोग शत्रुओंसे युद्ध करें।” सन्तानोंने देखा कि ये तो सेनापति जीवानन्द हैं, तब 'हरे मुरारे' का उच्च निनाद करते हुए सभी सन्तानगण भालेको जमीनमें टेककर उसीसे अड़कर खड़े हो रहे और