फिर दोनोंने चुपचाप न जाने क्या सलाह की। इसके बाद जीवानन्द एक जंगलमें छिप गये और शान्ति एक दूसरे जंगलमें जाकर अद्भुत काण्ड रचनेकी तैयारी करने लगी।
शान्ति मरने जा रही थी; पर उसने सोच लिया था कि मरते समय स्त्रीका ही वेश बनाये रखूंगी। महेन्द्रने उससे कहा था कि पुरुषका वेश बनाना धोखेबाजी है। इसलिये धोखेका रूप बनाकर मरना अच्छा नहीं। यही सोचकर वह अपनी पिटारी और सिन्दूरकी डिबिया साथ लिये आयी थी। उन्हीं में उसके श्रृंगारकी सब चीजें रहती थीं। अबकी नवीनानन्द वही पिटारी और डिबिया खोलकर अपना वेश बदलने लगे।
उस समयकी रीतिके अनुसार शान्तिने अपने लहराते हुए बालोंके गुच्छे इधर-उधर लटकते छोड़ दिये और उन्हींके भीतर मुंहको छिपाये, माथेमें चन्दन और कत्थेको सुन्दर बिन्दी लगाये, हाथमें एक सारंगी लिये, खाली वैष्णवी बनी हुई, अंगरेजी सेनाके पड़ावपर आ पहुंची। उसे देखते ही कड़ी-कड़ी मूछोंवाले सिपाही उसपर लठ्ठ हो गये। किसीने उप्पा, किसीने गजल, किसीने राधाके सम्बन्धके गीत और किसीने कृष्णावतार के भजन गानेके लिये फरमायश कर डाली और मनमाने गीत सुन, किसीने चावल, किसीने दाल, किसीने मिठाई, किसीने पैसे दिये और किसीने चवन्नीतक दे डाली। वैष्णवी जब वहांका सारा हाल अपनी आँखों देखकर लौटने लगी, तब सिपाहियोंने उससे पूछा-“अब फिर कब आओगी?” वैष्णवीने कहा- "कुछ कह नहीं सकती; क्योंकि मेरा मकान बहुत दूर है।" सिपाहियोंने पूछा-"कितनी दूर है?” वैष्णवीने कहा-"मेरा