यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६२
आनन्द मठ


बातका पता भी मालूम हो गया था कि वह इन दिनों कहाँ रहती है। जीवानन्दने धीरे-धीरे सब बातें महेन्द्रको बतला दी।

पहले तो महेन्द्रको विश्वासही न हुआ, पर अन्तमें वे इस आनन्दसे अभिभूत हो, मुग्ध हो रहे।

उस रातके बीतते बीतते शान्तिकी बदौलत महेन्द्रकी कल्याणीसे भेंट हुई। उप्त सुनसान जंगल में सालके पेड़ोंकी घनी श्रेणीके भीतर अन्धेरे में छिपे हुए पशु-पक्षियोंके सोकर उठने के पहले ही उन दोनोंमें देखादेखी हुई। उनके इस मिलने के साक्षी केवल नीले आकाशमें सोहनेवाले, क्षीण-प्रकाश नक्षत्र और चुप-चाप कतार बाँधे खड़े रहनेवाले सालके पेड़ ही थे। दूरसे कभी-कभी पत्थरकी शिलाओंसे टकरानेवाली, मधुर कल-कल नाद करनेवाली, नदीका हर-हर शब्द और कभी-कभी पूर्व दिशामें उषाके मुकुटकी ज्योति जगमगाती हुई देखकर प्रसन्न होनेवाली एक कोयलकी कूक सुनायी पड़ जाती थी।

एक पहर दिन चढ़ आया। जहां शान्ति थी, वहीं जीवानन्द भी आ पहुंचे। कल्याणीने शान्तिसे कहा-"हम लोग आपके हाथों बिना मोल बिक गये हैं! अब हमारी कन्याका पता बता कर आप इस उपकारको पूरा कर दें।"

शान्तिने जीवानन्दके चेहरेकी ओर देखते हुए कहा-"मैं तो अब सोती हूं। आठ पहरसे मैं बैठीतक नहीं है। दो रात जागकर ही बितायी है। मैं पुरुष हूं-

कल्याणीने धीरेसे मुस्कुरा दिया। जीवानन्दने महेन्द्रकी ओर देखते हुए कहा- “अच्छा, इसका भार मेरे ऊपर रहा। आप लोग पदचिह्न चले जाय, वहीं आप अपनी कन्याको पा जायंगे।"

यह कह जीवानन्द, निमाईके घरसे कन्याको ले आनेके लिये भरुईपुर चले गये, पर वहां पहुंचनेपर उन्होंने देखा कि यह काम कुछ आसान नहीं है।

पहले तो निमाई यह बात सुनते हो चकपका गयी और