दूसरे ही दिन सवेरे दोनों स्त्री-पुरुष, थोड़ा-सा द्रव्य अपने साथ ले घर में ताला लगा, गाय गोरू को खुला ही छोड़, कन्या को गोद में ले राजधानी की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर चलकर महेन्द्र ने कहा—"रास्ता बड़ा ही विकट है, पग पगपर लुटेरे मिलते हैं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं। यह कह, वे लौट पड़े और घर—में से बन्दूक, और थोड़ी सी गोली बारूद ले ली।
यह देख, कल्याणी ने कहा—"हथियार को भी अच्छी याद दिलायी। तुम जरा सुकुमारी को गोद में लिये रहो—मैं भी कुछ हथियार सङ्ग ले लूं।" यह कह, कन्या को महेन्द्र की गोद में दे, कल्याणी भी घर के अन्दर जाने लगी।
महेन्द्र ने पूछा—"तुम कौन सा हथियार सङ्ग ले चलोगी?"
घर में आकर कल्याणी ने एक छोटी सी डिबिया निकाली और उसे अपने कपड़े के अन्दर छिपा लिया। उस डिबिया में जहर रखा हुआ था। विपत्ति के दिन हैं, न जाने कब क्या हो, यही सोचकर कल्याणी ने पहले से ही अपने पास विष रख लिया था।
जेठ का महीना था। कड़ाके की धूप से पृथ्वी आग से भरी भट्टी की तरह दहक रही थी। दोपहर की लूह आग की लपटों को मात करती थी। आसमान तपे हुए ताम्बेके चद्दर की तरह तप रहा था। रास्ते की धूल आग की चिनगारी बन रही थी। कल्याणी को राह चलते चलते पसीना आने लगा। वह कभी बबूल के पेड़ के नीचे, कभी खजूर की छाया में बैठकर, सूखे हुए सरोवर का गदला पानी पीकर बड़े कष्ट से रास्ता तय करने लगी। लड़की महेन्द्र की गोद में थी। वे रह रहकर उसके मुंह पर हवा करते जाते थे। इस तरह चलते चलते उन्हें हरे हरे पत्तों से सुशोभित, सुगन्धित कुसुमों से लदी हुई लताओंसे वेष्टित वृक्षों की सघन छाया मिली, दोनों ने बैठकर विश्राम किया।
महेन्द्र कल्याणी की श्रमसहिष्णुता देखकर विस्मित थे।