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आनन्द मठ


"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्,
सदय हृद्य दर्शित पशुधातम्,
केशव धृत बुद्ध-शरीर,
जय जगदीश हरे!"

उसी समय बाहरसे न जाने किसने मेध-गर्जन की तरह बड़े ही गम्भीर स्वरसे गाया—

"ग्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम्।
धूमकेतुमिव किमपि करालम्॥
केशव धृत कल्कि शरीर,
जय जगदीश हरे!"

शान्तिने भक्तिभावसे सिर झुकाकर सत्यानन्दके पैरोंकी धूलि सिर चढ़ायी; बोली—"प्रभो! मेरे बड़े भाग्य जो आज आपके चरणकमल यहांतक आये। आज्ञा कीजिये मुझे क्या करना होगा।"

यह कह, फिर सारङ्गीका सुर मिलाकर उसने गाया,—"तव चरणप्रणाता वयमिति भावय, कुरु कुशलं प्रणतेषु।"

सत्यानन्दने कहा,—"देवि! तुम्हारी कुशल ही होगी?"

शान्ति°-"सो कसे महाराज? आपकी आज्ञा तो मेरे वैधव्यके हेतु है।"

सत्या°—"पहले मैं तुम्हें पहचानता नहीं था। बेटी! मैं रस्सीका ज़ाेर आजमाये विना ही उसे खींच रहा था। तुम्हारा ज्ञान मुझसे कहीं बढ़ा हुआ है। अब तुम जो उपाय अच्छा समझो, करो। जीवानन्दसे यह मत कहना कि मैं सब कुछ जान गया हूं। तुम्हारे लिये वे अपनी जान बचानेकी चेष्टा कारेगें। अबतक बचाते भी रहे हैं। बस, इसीसे मेरा काम हो जायगा।"

यह सुनते ही उन नील उत्फुल्ल लोचनोंमें आषाढ़ मासमें चमकनेवाली बिजलीकी तरह क्रोधाग्नि पैदा हो आयो। शान्ति- ने कहा—"यह क्या महाराज! आप यह क्या कह रहे हैं ? मैं