शान्ति-"ब्राह्मणी? तो क्या आपके ब्राह्मणी भी है?"
जीवा-“थी तो सही।"
शान्ति-"इसीसे आपको सन्देह हो रहा था, कि मैं ही आपकी ब्राह्मणी हूं?" जीवानन्दने हाथ जोड़ और गले में चादर लपेट विनयपूर्वक कहा,-"हां सरकार!"
शान्ति-“यदि आपके मनमें इस प्रकार हंसीकी बातें पैदा हुआ करती हैं, तो कहिये, आपका कर्त्तव्य क्या है?"
जीवा०-"आपके कपड़े जबरदस्ती हटाकर आपके होठोंका रसपान करना ही, और क्या।"
शान्ति-“यह आपकी दुष्टबुद्धि अथवा अधिक गांजा पीनेका परिचय है। आपने दीक्षाके समय शपथ की थी, कि स्त्रियोंके साथ कभी एक आसनपर नहीं बैठेंगे। यदि आपका यह विश्वास हैं कि मैं स्त्री हूं इस तरह रस्सीमें सांपका भ्रम बहुतोंको हुआ करता है तो आपके लिये उचित यही है, कि अलग आसनपर बैठिये। आपको मेरे साथ बातचीत भी नहीं करनी चाहिये।"
यह कह, शान्तिने फिर पुस्तकमें मन लगाया। परास्त हो कर जीवानन्दने अलग शय्या बिछायी और उसीपर शयन किया।