पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/८६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(७७)

को पढ़ लिखकर बीस वर्ष खराब कर देने पर भी, हजारे रूपए नष्ट कर डालने पर भी और "नई जवानी झांका ढोला" की कहावई के अनुसार स्वास्थ्य का खुन हो जाने पर भी कौड़ी काम का नहीं रखती तब उस शिक्षा से स्त्रियों का सर्वनाश समझो । ऐसी ऊँची शिक्षा पा लेने पर भी तेज उन्हें धर्म का किचित ज्ञान होता है और न दुनियादारी का । भले ही वे एक कारीगर के बेटे पोते हो किंतु उन्हें पढ़ लिखकर वसूला पकड़ने में शर्म आती है और जो कहीं किसी के कहने सुनने से अथवा पेट की आग ने जोर मारकर उसे उठवाया भी तो दस मिनट में बे हाँप उठेगें । यदि वे दुकान खोलने का इरादा करते हैं तो रूपया चाहिए और उसका बाप उनकी पढ़ाई में अनाप शनाप खर्च करके कर्जदार बन गया है। इसलिये पढ़ने लिखने का फल यही होता है कि वे बीस पच्चीस रुपए की नौकरी के लिये दौड़ जाते हैं, अफसर की लाते खाते हैं, गालियाँ खाते हैं और जन्म भर कुएं के मेंढक की तरह "चलते हैं लेकिन ठौर के ठौर।"बस इसलिये वे अवश्य "पहाड़ खोदकर चूहा" निकालते हैं और इसलिये कि पास’ का परवाना लेकर जब वे किसी आफिस में उम्मेदवारी करते हैं तब दो वर्ष तक उन्हें फिर काम का ककहरा सीखना पड़ता है।"

"हाँ मैंने मान लिया कि पुरुषों की शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं है परंतु स्त्रियों को कैसी शिक्षा मिलनी चाहिए !"