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जल्दी बला टल गई। भगवान्, तेर। धन्यवाद ! रोम रोम से धन्यवाद !"

ऐसे पंडित जी ने, पंडितायिन तार पढ़कर अपना संतोष कर लिया। पंडित दीनबंधु से दोनों बार पढ़वाकर उनका संदेह निवृत्त कर दिया किंतु गौड़बोले, भगदानहास, वुढ़िया, गोपीवल्लग और भोला क्या जाने कि तार में क्या है ? पहिले तार में क्या लिखा था सा पाठक पचासवे प्रकरण में पढ़ चुके हैं। दूसरे तार का भावार्थ यो था---

बदमाशों ने झूठा इलज़ाम लगाने में तो कसर नहीं रखी थी । एक मेरे नाम पर अपको झूठा तार दे आया और दूसरे ने पुलिस में झूठी रिपेार्ट की । पुलिस आई भी किंतु जब मामले की कुछ बुनियाद ही नहीं तो अपना सा मुंह लिए लौट गई । हम दोनों प्रसन्न हैं । लोग उन दोनों पर मुकदमा चलाने की सलाह देते थे किंतु मेरी इच्छा नहीं है। मरे से क्या मारना ? आप ही मर जायँगे, जेठ चलते वाट ।

सब लोगों को तार सुनाकर पंडित जी बोले ...“शाबाश लड़के ! वाह री क्षमाशीलता ! सज्जनों को ऐसा ही चाहिए। परंतु क्यों महाराज ! आपके यह तार कैसे मिला ? और आपको यह क्या मालुम कि मैं इस ट्रेन से आनेवाला हूँ?

"इसका यश पुरी के पड़ा शितिकंठ जी को है ! बोध होता है कि आपके रवाना होने के अनचर उनको कांता भैया का तार मिला । तार की बात ठहरों । उन्होंने खोलकर पढ़