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"हैं मैंने ? क्यों ? ऐसी क्या आफत पड़ी थी जो मैं एक औरत की जान लेता ? खैर ! कुँए से लाश बरामद हो गई ? अगर हो गई हो तो मेरा चालान कीजिए।"

“अजी हजरत, ऐसी टेढो टेढ़ी बातें क्यों करते हैं ? जरा सँभलकर बात कीजिए। अगर लाश ही बरामद हो जाती तो कभी की हथकड़ो भर देते। मगर लाश ही बरामद ने होने में आप बरी नहीं हो सकते ! आपको अपनी सफाई का सुबूत देना होगा ।"

"खैर ! इजत तो आज अपने बिगाड़ ही डालो मगर मेरे साथ अंदर चलिए । शायद लाश ही अपना जवाब आप दे ले !" यों कहकर कांतानाथ दीवान जी का हाथ पकड़े हुए जनाने मकान में जाकर बेल-----

'अच्छी बोल री लाश, तुझे किसने मारा ?” उनके सवाल करने पर परदे की ओट से जवाब आया- "कौन निपूता मुझे मारनेवाला है ? मैं ने अभी सौ वर्ष जिऊँगी ।" आवाज सुनते ही पुलिस शर्मा गई, रिपोर्ट देनेवाले का खून सूख गया और भीड़ भाग गई । “अब भी आपको शक हो तो उस लाश को बाहर भी बुलवा सकता हूँ। खैर, पर्दा तो बिगड़ ही खया। अब बाहर बुलवाई में क्या हर्ज है ?"

“नहीं? जरूरत नहीं। यह हमारे गाँव की लड़की है, इनके वालिद और मेहे वालिङ से खूब जान पहचान थी । मैंने सैकड़ो बार देखा भाला है । अवाज पहचान ली ।"