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इतनी बातचीत हो चुकने के अनंतर पंडित जी का नुन यात्रियों से अपने संगी साथियों से संभाषण में महाप्रसाद की अवज्ञा पर, मत्स्यभक्षण के दोषों पर जो संभाषण हुआ था उसका प्रसंग छिड़ा। गुरूजी ने मस्तक झुकाकर इन दोषों को स्वीकार किया। अंत में कहा--. ।

"यह बातें अवश्थ मेटने थोग्य हैं। उन्हें शीध्र ही मिटाना चाहिए किंतु इसके लिये बहुत भारी उद्योग की आवश्यकता है। हथेली पर तरसे जमाने से काम न चलेगी । पीढ़ियों से पड़ा हुया अभ्यास छुड़ाना है। यदि आप ही यहाँ दो चार महीना निवास करें तो काभ शीघ्र ही सकता है। शक्ति भर सहायता देने और प्रयत्न करने को मैं तैयार हूँ किंतु आप जैसे पंडित की आश्यकता है ।"

इस पर पंडित जी का मन पिघल गया । नौकरी भले ही बिगड़ जाय परंतु यहाँ रहने को ने तैयार हुए । साथियों ने उनका बहुतेरा समझाया किंतु उनके मन में अब यहाँ रहकर कर्तव्य स्थिर करने के लिये विचार-तरंगें उठने लगीं । उन्हें किसी की कुछ न सुनकर बँचे बंधाए तिरे खोल देने की भोला को आज्ञा दे दी। ऐसे जनरेली हुक्म के समय प्रियंवदा का क्या साहस जो उन्हें रोक सके । वाचार भोला यदि कुछ कहे तो उसके लिये फटकार की पोशाक मिल जाय । और की भी इस समय तान नहीं जो कुछ कह सकें। किंतु अंत में होता वही है जे परमेश्वर के