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आए” इसे उपदेश दे रहीं हैं- “खबरदार ! इस स्वर्ग-सुख के भरोसे देवमंदिर में आकर यदि भ्रम-वश भी तुम्हारे मन में हमारा सा, किंचित् भी काम विकार उत्पन्न हुआ तो तुम ऐसे गिरोगे कि फिर कहीं ठिकाना नहीं । स्वर्ग में निवास करनेवाले इंद्रादि देवताओं को, नारदादि ऋषियों को भी कामवश गिरना पड़ा है ।"

“बन्ध' की मूर्ति जैसे विलक्षण है वैसे उसकी सब बातें विचित्र हैं । दुनिया भर की प्रतिमाओं में सौभाग्य,सुंदरता है और यहां भीषणता । हिंदू समाज में जहाँ देखो तहाँ आचार की प्रधानता और यहाँ अनाचार की पराकाष्ठा । दुनिया में अपनी अश्लील मूर्तियां निदनीय और यहाँ खुलाखुली दिखाई जा रही हैं।"

"इसका प्रयोजन यही है कि ये बातें संसरियों के लिये हैं और यहाँ आकर भगबरुचरणों में जिनका अंत:करण सच-मुच लिपट जाए ये द्विधा में, हर्ष-शोक से, मानापमान से, अपने पराए से, सब बातों से अलग हो जाते हैं । हो जाने में ही सार्थकता है। उनके लिये जो कुछ है वह केवल भगवान् के पादपदो में प्रचल, अटल, अव्यभिचारिणी भक्ति है ।"

इस प्रकार से बात करते करते पंडित जी जब निद्रा आने लगी अव्य प्रियवंदा ने मौन धारण कर लिया। पैर दब बातें दबवाते जब वह सो गये तब वह भी हो गई । इन लेगों का विश्राम मिला !