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और भी कह दीजिए। क्या इस महाप्रसाद को हम स्वदेश भी ले सकते हैं ?

नहीं ! माहात्म्य इस पुरी का है, केवल बाबा के चरणों में है। उसके चारणरविदो से जितने दूर उसने ही दुर !"

अच्छा महाराज,आपने हमारा संदेह मिटाकर बड़ा उपकार किया । आपके दर्शनों से आज हम कृतकृत्य हुए। कहते हुए जब वे दोनों यात्री उनके पास से उठकर अपनी कोठरी में अपने अपने विस्तरो पर जा सोए तब प्रियंवदा ने अपने प्राधालाब के चरण चापने के लिए, उनकी दिन भर की थकान दूर करके उन्हें सुख ने सुलाने के लिये अपने कोमल कोमल हाथ बढ़ाए। इस पर पंडित जी बोले-हैं हैं ! यह क्या करती है ? आज तू भी बहुत थक गई है । सो जा । सो जा! एक दिन न सही ! क्या यह भी कोई नित्य नियम है । देवपूजा है ? यदि पुरी में आकर न किया तो न काही ।”

"हां मेरे लिए तो नित्य नियम ही है । वास्तव में देवपूजा ही है । न किया सोन कैसे किया ?"कहकर प्रियंवदा पति के चरणों चापने लगी । क्यों जी नींद तो नहीं आती है ? आपकी निद्रा में ते विन्न नहीं पड़ेगा ? आज आप बहुत थक गए हैं यदि नींद आती हो तो वैसा कह दो!"कहकर उसने कई सवाल पर सवाल कर डाले । उन्होंने उतर दिया---

नहीं ! अभी नहीं आती ! नेत्रों में निद्रा का लेश भी नहीं है। आज शायद कुछ देर से आये और अभी अति काल भी नहीं हुआ।"