पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१४)

वान की प्रदक्षिणा करते हुए मंदिर से बाहर निकले। परंतु ओहो! मंदिर का अंधकार ? परिक्रमा की सकरी गलो की कासामंसी ? कुछ पूछो ही मत । जहाँ भर दुपहरी में दीपक के बिना काम ही न चले । भगवान् के चरणों में पहुँचने के अनंतर मानो यह अंतिश कसौटी है अथवा सोने के तार को अधिक लंबा और अधिक बारीक बनाने के लिये सुधार की जंती की तरह प्रेम की जंती है । कुछ भी हो, अव पंडित पार्टी भूख के मारे व्याकुल है । जरा उसे डेरे पर पहुंचकर कुछ विश्राम में लेने दीजिए। प्रसाद पा लेने दीजिए। गोपीबल्लभ वास्तव में भूख के मारे रो रहा है, अपनी आंखों से मोती से आंसू गिर रहा है । छोटा बड़ा कोई हो चेहरे तो सब ही के खिसियाने से हो रहे हैं। पंडित जी का भक्ति से पेट भर गया तो क्या हुआ और प्रियंवदा का चाँद सा मुखड़ा चाहें अपने भावों को छिपाने का प्रयत्न ही क्यों न करे किंतु उसके मुख कमल की कुम्हिलाहट दौड़ दौड़कर जतला रही है कि पति परमात्मा के महाप्रसाद पा लेने के अनंतर उनकी जूठन मुझे भी मिले । अस्तु । पार्टी जब मकान पर पहुँच गई तब थोड़ी देर सुरताकर पंडित जी और गोड़बोले ने स्नान किया । पीतांबर पहने और यो तैयार होकर अपने खर्च के योग्य मंदिर से जाकर प्रसाद से आए और तब सबने भक्तिपूर्वक, तृप्तिपूर्वक भोजन किया ।