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"हाँ ! परंतु आप लोगों की राय का ब्रह्मचर्य नहीं । बीस पचीस वर्ष तक कुंवारा कुंवारी रखकर शिकार खेलने की आजादी नहीं । क्या स्त्री और क्या पुरुष, दोनों को कुसंगति से बचाकर सुसंगति में प्रवृत्त करना तो मुख्य है परंतु शरीर-संगठन देखकर रजोदर्शन के काल से कुछ ही पहले विवाह, शरीर ही की स्थिति देखकर विवाह से प्रथम, तृतीय अथवा इद पंचम वर्ष में गौना, केवल ऋतुकाल में गमन, पातिव्रत तथा एकपत्नीत्रत, यही हमारा शास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य है। लड़की से ड्योढ़ी लड़के की उमर, पुरुष का तीस पैतीस वर्ष के बाल विवाह नहीं ।"

"अपकी सब बातें यथार्थ हैं। बेशक होना भी ऐसा चाहिए। परंतु जैसे आपने होली का हमारा जातीय त्योहार साबित किया उसी तरह सलोनो, दशहरा और दिवाली की भी तो व्याख्या कीजिए।"

होली की विशेष व्याख्या “होली के रहस्य" में प्रकाशित हुई है । और त्योहारों की व्याख्या का आज समय नहीं । आज समय है हँसी खुशी मनाने का ।" बस इतना कहकर पंडितजी ने जयोंही नवागत महाशय के गालों पर गुलाल मलीं किसी की पिचकारी, किसी को कुमकुमा और किसी के मुट्ठी भर गुलाल ने उनको व्याकुल कर दिया। "बस बस ! बहुत हुआ। मुआफ करे !” कहते हुए उन्होंने जफ उठाया और उसे बजाकर जब वह सूरदासजी के पद गाने लगे तो एकदम सन्नाटा छा गया ।