पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२१७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२०८)

दोनों का दोनों के यहाँ अतिथ्य भी खूब होता है किंतु "पंडित दीनबंधु के सामने लेने का कभी हरगिज भी नाम न लो ।" जब उससे इस विषय में कुछ कहा जाता है तो कानों पर हाथ लगाकर सिर झुका लेने के सिवाय, कृतज्ञता के भाव से दब जाने के अतिरिक्त चुप । यदि पंडितजी चुपचाप उसके वस्त्रों में कुछ बाँध देने का प्रयत्न करते हैं अथवा बाँध ही देते हैं तो "बस घृणा कीजिए ।" कहकर वापिस कर देते हैं। उनक नियम है कि लोवा-हित-कार्य में कभी किसी से सहायता न लेनी । जिसका उपकार बन पड़े उससे यदि किसी काम के लिये कुछ लिया जाय तो दला हो जाय । वह कहा करले हैं कि "दुनिया में ऐसे हजारों काम हैं जिनमें दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं ।" बस इसी उद्देश्य से वह चुपचाप दीन दुखियों की सहायता किया करते हैं। किस तरह किया करते हैं सो यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं । बस नि:स्पृहृच की,परोपकार की और कर्तव्यपरायशाला की पंडित दीनबंधु पराकाष्ठा हैं। पंडित प्रियानाथ आजीवन उनके कनौड़े हैं और प्रियंवदा जब जब उनके दर्शन पाती है तब तब उसके हृदय में पितृभाव का संचार होकर वह गद्गगद हो जाया करती है। वह चाहे संकोश्च से कुछ न कहे परंतु उसके नेत्रकमलों से कृतज्ञता प्रकाशित करने के लिये आंसुओं की झड़ी लग जाती है, और "बेटी रो मत | मैंने कुछ भी नहीं किया । मुझ जैसे तुच्छ कीटानुकीट से बन ही क्या सकता