पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२१५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२०६)

से मौजूद आ ही, उसमें पंडित पंडिवायिन और गौड़बोले का अनुभव और संयुक्त कर लिया गया । आगे वे क्योंकर घर की शिक्षा से निवृत हेरकर हिंदू विश्वविद्यालय के "ग्रेज्युएट" हुए, उनका कब उपवीत, कब विवाह और कब उनके कार्य का प्रारंभ हुआ और वे कैसे निकाले सो कहना इस किस्से का विषय नहीं । हाँ ! यहाँ इतना अवश्य लिख देना चाहिए कि "सुख संपति परिवार बड़ाई, धर्मशील पहँ अहिं सुझाई ।” इस लोकोक्ति के अनुसार सब ठीक हो गया ।

किंतु गौड़बोले के काम की यही इतिकर्तव्यता नहीं थी । उन्होंने पंडित जी के परामर्श से, उन्हीं के द्रव्य से और उन्हीं के निरीक्षण में एक औषधालय और एक पाठशाला खेल रखी है । जब ये दोनों बालक और साथियों के साथ यहीं पढ़ते हैं तब शिक्षा का क्रम तो वहीं होना चाहिए जो ऊपर कहा गया है। हाँ औषधालय का क्रम ऐसा है जिसमें लड़के पढ़कर, सीखकर वैद्य बनते हैं, जहाँ इलाज आयुर्वेद के और चीर फाड़ डाक्टरी के मत से होती है और जहाँ इलाज करने के लिये "सुश्रुत" में लिखे औजार बनवा लिए गए हैं और जहाँ नवीन, ताजी वनस्पतियाँ मिलने के लिये एक बाग भी लगा दिया गया है। केवल इतना ही क्यों किसी सभय पूना के सुप्रसिद्ध स्वर्गवासी विद्वान् डाक्टर गर्दे महाशय ने वात, पित्त, कफ तीनों दोषों की जाँच करने के लिये थर्मामेटर का जो नमूना तय्यार किया था उसी से लाभ उठा