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"भला तो पक्की खान ली ? सचमुच ही ? जरूर ही ?तब"प्रिया नाथ" क्यों नहीं ?"

"हां ! हां !(कुछ झेपकर) सत्य ही ! और सो भी इसलिये कि जीते को हारना चाहिए,हारी को जितना चाहिए। मैं एक बार हारकर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी । पितामह भीष्मा ने अपना सर्वस्व अर्पण करके ही भगवान् को हराया था । श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा तुड़वा दी थी । बस मैं भी हराऊँगी ।" इस तरह कहकर भगवान् पुष्पधन्वा के वाणों का प्रयोग करती हुई खूंटी पर से कपड़े उतारकर ज्यों ही हँसते हँसते, मुसकुराते मुसकुराते वह पहनाने लगी त्यो ही किवाड़ अकस्मात खटके । बाहर से कुछ सुरकुराहट की हलकी सी आवाज आई और तब “हाय यह फिर नया गजब हो गया !" कहकर वह उसी दम मूच्छित हो गई। "हैं ! हैं ! बावल यह क्यों ? क्या अब भी तेरे दिमाग में से भूत का भय नहीं निकला ।” कहते हुए प्राणनाथ ने शीतोदक सिंचन से प्यारी के नेत्र युगलों का अभिषेक किया और साथ ही थोड़ा सा ठंढा ठंढा शरबत पिलाया। कोई पाँच मिनट में जब उस के होश ठिकाने आ गए तब प्रियंवदा कहने लगी-----

"आपके पुण्य प्रताप से भूत बेशक अब नहीं रहा किंतु मेरे अंत:करण से अभी तक भय नहीं निकला। योंही मुझे रस्सी का साँप दिखाई दिया करता है।"