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देशोपकार का कुछ भी काम करना चाहें, परंतु मेरी सम्मति यह है कि दाता ने जिस काम के लिये जो जायदाद दी है वह उसी काम में लगनी चाहिए। गद्दी पर विद्वान्द, धार्मिक, संयमो, जितेंद्रिय और सज्जन, नि:स्पृही महात्मा के बैठने से संस्कृत की शिक्षा का प्रसार हो सकता है, शिष्यों को सदुपदेश मिलने का प्रबंध हो सकता है और यों धर्म-सेवा होने से उद्देश्य की सफलता हे सकती है ।"

“जब संसार त्यागकर वैराग ही ले लिया तब उद्देश्य क्या ? गरुआ कपड़े पहनकर,राख रमाकर, गुरू बनकर नाहक भेप के लजाना है। चौथे आश्रम के लातें मार मार कर नष्ट भ्रष्ट करना है। शास्त्र में संन्यासी के लिये इस तरह रहना कहाँ लिख है ?"

"शास्त्र में यदि न हो तो न सही । संन्यासी का धर्म यही है कि वह बन कंदमूलों स्वर अपना गुजारा करे, नित्य तीन घर' से अधिक भिक्षा न माँगे, तीन दिन से अधिक एक जगह न ठहरे और इस तरह भिक्षा न ले जिसमें दाता का जी दुखे । जो कुछ मिल जाय उसे जल में धोकर बिना स्वाद एक बार खा लें, दुनिया के रागद्वेष से अलग रहे और तत्वों का चितवन करता रहे । परंतु महाराज, समय के अनुसार इक मठाधीशों की भी आवश्कता आ पड़ी । दुनिया का जितना उपकार इनसे हो सकता है उतना गृहस्थों से नहीं । विचारे गृहस्थी को अपने पेट पालने से फुरसत ही कहाँ है ? ऐसे